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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १९६ मुंबई के जैन मन्दिर __ श्रीयुत उत्तमचन्द पुनमचन्द शाह तथा श्रीमती सुभद्राबेन उत्तमचन्द शाह उपाश्रय - आराधना भवन बनवा कर श्री जैन संघ को वीर सं. २५२०, वि. सं. २०५० में अर्पण किया। यहाँ श्री पार्श्व विवका महिला मण्डल, श्री शुभ सन्देश जैन पाठशाला की व्यवस्था है। (३११) श्री आदीश्वर भगवान भव्य शिखर बंदी जिनालय १८०, मोतीशाह लेन, भायखला (पूर्व), मुंबई - ४०० ०२७. टे. फोन : ओ. ३७२ ०४ ६१, ३७१ ०७ ९२, किरणभाई - ३७५ ७६ ६६, ३७१ ०९५९ सुमनभाई - ३७६ ३८ १४ विशेष :- प्राचीन इतिहास :- सुप्रसिद्ध अनेक मन्दिरो के निर्माता जिनधर्मप्रेमी श्रावक - शिरोमणि मोतीशाह सेठ के पिताजी का नाम अमीचन्द और माताजी का नाम रूपादेवी तथा दादाजी का नाम साकलचन्द एवं नाहटा गोत्र परिवार के थे। आपका जन्म वि. सं. १८३८ को हुआ था। आपके बड़े भाई का नाम नेमिचन्द और छोटे भाई देवीचन्द, इस प्रकार तीन भाई थे। तीनो भाई बाल्यकाल से प्रात:काल माता पिता के चरण स्पर्श करते थे तथा प्रतिदिन माता पिता के साथ जिन - दर्शन - पूजा के लिये जाते थे । तीनो युवावस्था में पहुँचे । मोतीशाह का विवाह दीपादेवी के साथ हुआ था । मोतीशाह की सुहाग रात को भी पति - पत्नी का आपस में एक अजब समझोता हुआ। पहले किसी तीर्थ की यात्रा की जाए, फिर सुहाग रात मनाई जाए। सेठ श्री की दिनचर्या आराधना से प्रारंभ होती थी । वे प्रात: उठते ही सामायिक आदि से निवृत्त होकर धान्य से एक कटोरा भरकर उसमें एक रूपया डालकर पैदल ही निकल पडते थे। यह उनका गुप्त दान होता था। उसके बाद वे गोडीजी मन्दिर दर्शनार्थ जाते थे। वहाँ पूजन आदि से निवृत्त होकर कोई यति या मुनि भगवन्त बिराजमान होते तो उनके दर्शन और व्याख्यान को अवश्य सुनते । व्याख्यान आदि से निवृत्त होकर घर पर नाश्ता आदि करके, जहाँ जहाँ उनके मन्दिर के निर्माण कार्य चलते थे, वहाँ निरीक्षण के लिये जाते थे। एक समय की बात हैं, एक रात वे धार्मिक विचारो में खोये हुए थे कि लगभग रात्री के अंतिम प्रहर में अनहोनी और असंभव घटना घटी - सेठ ! जाग रहे हो या सो रहे हो? जब दो तीन बार यही ध्वनि मोतीशा के कानो से टकराई तो मोतीशाको विश्वास हो गया कि यह उनका भ्रम नही, सत्य हैं । वे अचकचा कर उठ खडे हुए । सामने देखा तो आँखो को चोधियाने वाला अत्यंत स्वरूपवान कोई देव खडा हैं। जिनके ताज पर अंकित श्री आदिनाथ प्रभु की प्रतिमा थी, अत: वे प्रथम तीर्थकर श्री ऋषभदेव प्रभु के अधिष्ठायक देव ही थे । वे अहमदाबाद में बिराजमान ऋषभदेव प्रभु के सेवक थे । देव ने कहा - मैने अपने ज्ञान द्वारा पता लगाया हैं कि यहाँ भायखला में तुने विशाल भूखण्ड खरीदा हैं। वह खरीदी गई भूमि अत्यन्त रमणीय और पावन हैं । मै अपने आराध्य प्रभु के साथ अहमदाबाद से आकर यहाँ (इस भूमि पर) आवास बनाना चाहता हूँ। For Private and Personal Use Only
SR No.020486
Book TitleMumbai Ke Jain Mandir
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhanvarlal M Jain
PublisherGyan Pracharak Mandal
Publication Year1999
Total Pages492
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size28 MB
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