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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वज्जिज्जा अधम्ममित्तजोगं । चितिज्जाऽभिणव पाविएगुणे, प्रणाइभवसंगए गुणे, उदरगसहकारित प्रधम्ममित्ताणं, उभयलोगगरहित्त, सुहजोगपरंपरंच । अकल्याण मित्र ( आत्मा के हित का शत्रु ) का त्याग करना उचित है । सगे सबन्धी मित्र परिवार जो भी संसार में डुबावे. वे सभी अकल्याण मित्र हैं । सारा संसार ही ऐसा है । अतः उसे शीघ्र छोडें, पर वहन बने तब तक उनको कल्याणमित्र बनाने का प्रयत्न करें। प्रहिंसादि गुण श्रात्मा के हितकारक हैं । ऐसा उन्हें भी समझाना | गुण तो नये प्राप्त हुए हैं, अत: उनका खूब सिंचन करो। अगुण या दोष अनादि काल से श्रात्मा में लगे हैं, अतः उन्हें भूलने या उनसे छूटने का प्रयत्न करो। इसके लिए मानव भव से अच्छा अवसर कभी नहीं मिलेगा । अकल्याणमित्र परलोक चितासे रहित होते हैं। उन्हें इस भव या भवांतर में वास्तविक शुभ हित या शांति क्या है व किसमें है, उसका विचार नहीं होता । अतः उनका त्याग करें। अशुभ परंपरा [५० ] For Private And Personal Use Only
SR No.020484
Book TitleMukti Ke Path Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay, Amratlal Modi
PublisherProgressive Printer
Publication Year1974
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
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