SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir समय में देखते हैं । देव पान्वभव प्राप्त पर्याय केवल ज्ञानी एक ही प्रभु देवे पूजित हैं । कर के पथ के समान शुद्ध भाव सहित उनके समान शुद्ध चारित्र की प्राप्ति के लिए प्रभू की जा करन हैं । 'दीक्षा केवलने अभिलाषे नित नित जिन गुण गावे ।" जो तत्त्व प्रभु को मिला, उसे यथास्थित जीवों के हितार्थ सभी जीवों के सन्मुख रखा । प्रभु नव तत्त्व के प्ररूपक तथा त्रिपदी ( सर्व वस्तु उत्पन्न होती है, टिकती हैं तथा नष्ट होती हैं) के उपदेशक हैं। प्रभु के इस रूप के स्वीकार से मोह की प्रबलता घटती हैं । जिन के स्वयं के कर्म जलकर बोज रहित हो चुके हैं वे (ग्ररुहत ) भगवत कहते हैं: - (१) जीव अनादि काल से हैं, (२) जीव का सौंसार अनादि काल का है और (३) वह संसार अनादि काल से चले आने वाले कर्मों के संयोग से बना हैं । अतः वह संसार ( १ ) दुखरूप है ( २ ) दुःख फलक (फलस्वरूप दु:खद ) हं और ( ३ ) पर ंपरा ( अनुबन्ध) का सर्जक हैं । दुःख की For Private And Personal Use Only [२६]
SR No.020484
Book TitleMukti Ke Path Par
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKulchandravijay, Amratlal Modi
PublisherProgressive Printer
Publication Year1974
Total Pages122
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size4 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy