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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मोहन-संजीवनी दिनों में वे अधिकांश ध्यानमग्न रहते । बाह्य उपचार था सही पर आपकी तत्परता, आत्मदर्शन की तरफ ही थी। संवत्सरी पर्वका महादिवस-जब सारी दुनिया से जैन मानस क्षमा का आदान प्रदान कर निर्वर हो मैत्रीभाव धारण करता है। श्रीपूज्यजोने भी ८४ लक्ष जीवायोनि के जीवों से क्षमापना करते हुए अपना नश्वर देह छोडा। पूर्ण सन्यास की ओर श्रीपूज्यजी महाराज के स्वर्गवास से आपको काफी रंज हुआ। गुरुजो के बाद आपको श्रीपूज्यजीने बहुत स्नेह के साथ रक्खा था व काशी में विद्याध्ययन करवाया था। खूब अपने मन को समझाते रहे फिर भी जी में गुरुभक्ति उमड आती थी और आंखें उत्तर देने लगती थी। आपने सोचा कुछ दिन तीर्थयात्रा कर आउं तो ठीक हो । इधर बाबू छुट्टनलालजी की भावना हुइ कि पालीताणा की यात्रा संघ के साथ की जाय । जब उनकी तय्यारी हो गई तो उन्होंने यति श्री मोहनलालजी से भी साथ चलने की विनंती की । महाराजश्री की भावना तो थी ही, आप संघ के साथ पालीताणा पहुंचे। बडी भक्तिभाव के साथ आपने यात्रा की। श्री गिरनारजी भी संघ के साथ पधार आये । इस यात्रा से आपको पर्याप्त सांत्वना मिली । यात्रा कर आप पुनः लखनउ पधार गये और वहीं रह कर ध्यान करने लगे। लखनउ ही अब आपका साधनाक्षेत्र बन गया। १२ वर्ष आपने यहीं बिताये। For Private and Personal Use Only
SR No.020481
Book TitleMohan Sanjivani
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRupchand Bhansali, Buddhisagar Gani
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1960
Total Pages87
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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