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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir थवा मीराँबाई मेरे तो गिरधर गोपाल, दसरो न कोई। जाके सिर मोर मुकुट मेरो पति सोई ।। कहाँ कहाँ जाऊँ तेरे साथ कन्हैया। . बंसी केरे बजैया कन्हैया । बृदाबन की कुंज गलिन में गहे लीनो मेरो हाथ कन्हैया । इत्यादि [राग कल्पद्रन प्रथग भाग ५.० ६६१] इन विविध प्रकार के पदों में मीराँ के जीवन पर विविध प्रभाव और उसके परिणाम स्वरूप उनके आध्यात्मिक जीवन के विकास-क्रम का सुंदर इतिहास मिलता है। संत-प्रभाव से प्रभावित होकर संसार की नश्वरता और ईश्वर-भक्ति की सारता प्रकट करती हुई उनकी प्रतिभा रहस्योन्मुखी हो उठती है,फिर भागवत के प्रभाव से कृष्ण लीला,विनय के पद और विप्रलम्भ शृगार से प्रारम्भ होकर उनके पदों में उस तन्मयता और प्रेम का परिचय मिलता है जो श्राध्यात्मिक अनुभूति का चरम विकास है और जो साहित्य में गोपी-भाव अथवा राधा-भाव के नाम से प्रसिद्ध है। बहिःसाक्ष्य-मीराँबाई के जीवन वृत्त-सम्बन्धी बहिःसादयों में सबसे अधिव, प्रामाणिक ग्रंथ नामादास-रचित 'भक्तमाल' है, जिसकी रचना सं० १६४२ के पीछे किसी समय हुई थी। उस समय तक मीराँबाई को मरे अधिक दिन नहीं हुए थे--शायद सब मिलाकर बीस वर्ष भी न बीते पाए थे। इसलिए उससे मीरों के सम्बन्ध में निकट सत्य जानने की पूरी सम्भावना थी। परन्तु दुर्भाग्य से 'भक्तमाल' में मीराँ के सम्बन्ध में केवल एक ही छप्पय मिलता है। परंतु वह एक ही छप्पय इतना अर्थगर्भित और गम्भीर है कि उससे कवि के जीवन पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है । वह छप्पय इस प्रकार है : लोक लाज कुल शृंखला तजि मीरौं गिरधर भजी। सदृश गोपिका प्रेम प्रकट कलियुगहिं दिखायो! निर अंकुश अति निडर रसिक जस रसना गायो॥ For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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