SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 163
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १५६ मीराँबाई तलफत तलफत बहु दिन बीता, पड़ी विरह की पाथड़ियाँ । अब तो बेगि दया कर साहिब, मैं तो तुम्हारी दासड़ियाँ। नैण दुखी दरसन को तरसे, नाभि न बैठे साँसड़ियाँ । राति-दिवस यह भारति मेरे, कब हरि राखै पासड़ियाँ। यह चिरंतन विरह और चिरंतन प्रतीक्षा ही मीराँ की प्रेम-साधना है.। आचार्य रामानुज ने स्नेह ( तेल) के स्निग्ध और सतत प्रवाह के समान भगवान् के अखंड ध्यान को ही भक्ति की संज्ञा प्रदान की थी। इस अखंड ध्यान के लिये भगवान् के ऊपर पूर्ण श्रास्था और उनके प्रति अविरल और अटल प्रेम अत्यन्त आवश्यक है। इस प्रकार की भक्ति में भावना की अपेक्षा ध्यान और धारणा की ही महत्ता विशेष है । भक्ति का शास्त्रीय रूप यही है और गीता में भगवान् ने इसी शान-समन्वित-भक्ति का उपदेश किया था । पूर्ण विश्वास और श्रद्धा के साथ भगवान् का ध्यान ही अलौकिक भक्ति है । परन्तु यह भक्ति केवल कुछ ज्ञानियों और योगियों की ही सम्पत्ति हो सकती थी, साधारण जनता इस उच्च कोटि की अलौकिक भक्तिभावना तक पहुँच ही नहीं सकती थी, सम्भवतः इसी कारण बाद के भक्तों ने ध्यान और धारणा की चर्चा तक न की। उन्होंने जिस भक्ति का निरूपण किया उसमें भावना के अतिरेक में भगवान के प्रेम का आनन्द प्राप्त करना ही मुख्य था। यह अानन्द भी अलौकिक अथवा इंद्रियों के अतीत न था, वरन् पूर्ण रूप से लौकिक और इंद्रियगम्य था। जैसे कामी पुरुष इंद्रियों के सुख की ही कामना करता है, उसी प्रकार तुलसीदास भी राम की भक्ति की कामना करते हैं : कामिहि नारि पियार जिमि, लोभिहि प्रिय जिमि दाम । त्यो रघुवीर निरन्तर, पिय लागिहि मोहिं राम ।। यह भक्ति का आनंद इतना गम्भ र और अद्भुत है कि भक्तगण इसके पीछे अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष-चारों पदार्थों को तुच्छ मानते हैं । भागवत में For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy