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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आलोचना खंड बढ़त छिन छिन, घटत पल पल जात न लागे बार। बिरछ के ज्यूँ पात टूटे, बहुरि न लागे डार । भौसागर अति जोर कहिए, अनंत ऊँडी धार । राम नाम का बाँध बेड़ा, उतर परले पार ॥ [मी० पदा० पद सं० १९५ ] और भी मनखा जनम पदारथ पायो ऐसी बहुर न आती ।। अबके मोसर ज्ञान विचारो, राम नाम मुख गाती ।। [ मी० पदा० पद सं० १९७ ] इस प्रकार मीराँ संसार की नश्वरता और मानव शरीर तथा चेतना की अमूल्यता दिखाकर अपने मन को और उसी के बहाने सारे संसार को भगवान की भक्ति की ओर प्रेरित करती हैं। उपदेश और चेतावनी के पद भी मीराँ के पदों में बहुत कम हैं और वे कुछ पद भी सम्भवतः परम्परा के प्रभाव से ही लिखे गए । सच तो यह है कि गुरु की वदना, चेतावनी, उपदेश तथा भक्तों की प्रशंसा और कथावर्णन के लिए मीरा के पास न तो अवकाश ही था न रुचि, उन्हें तो केवल अपने गिरधर नागर और उनके विरह में उनकी प्रतीक्षा के अतिरिक्त और कुछ भी अच्छा न लगता था । यद्यपि मीरा ने भगवान, भक्त, गुरु और उपदेश तथा चेतावनी सभी पर कुछ पद लिखे हैं, परन्तु भक्ति ही मीरों का विशेष विषय था और मीरों को हम विशुद्ध भक्ति-भावना और विरह-निवेदन का कवि कह सकते हैं । मीरों ने स्वयं अपने को विरह दिवानी कहा है : मिलता जाज्यो हो गुर-ज्ञानी थारी सूरत देखि लुभानी । मेरो नाम मि तुम लीज्यो मैं हूँ विरह दिवानी ।। और इस विरह दिवानी पर हिन्दी साहित्य को समुचित गर्व है। मक्त, भक्ति, भगवंत, गुरु और उपदेश तथा चेतावनी के अतिरिक्त प्रकृति का चित्रण भी कहीं-कहीं भक्त कवियों की कविता में मिल जाता मी. १० For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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