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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ११२ मीराँबाई महातरु छाया में । सर्वस्व समर्पण करने की विश्वास चुपचाप पड़ी रहने की क्यों ममता जगती है माया में ॥ इस अर्पण में कुछ और नहीं, केवल उत्सर्ग छलकता है । मैं दे दूँ और न फिर कुछ लूँ, इतना ही सरल फलकता है ॥ तब वह नारी - जीवन के सबल पक्ष की ओर संकेत करती है। मध्यकालीन संत कवियों ने नारी-जीवन का केवल निर्बल पक्ष ही देखा था । देखिये कबीर का नारी के प्रति कैसा भाव है : चलो चलो सबही कहैं, पहुँचै बिरला कोय | एक कनक कामिनी, दुर्गम घाटी दोय || नारी की भाई पड़े, अंधा होत भुजंग । कबिरा तिनकी कौन गति, नित नारी के संग ॥ Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इसी अश्रद्धा के कारण कबीर ने नारी की अज्ञानता, असमर्थता, बलापन और उसके बाह्य आवरण को ही नारी का सर्वस्व मानकर जीवात्मा पर केवल उन्हीं का आरोप किया । नारी के प्रांतरिक गुण -- उसकी लज्जा, करुणा, विश्वास और अटल प्रेम का आरोप करने का उन्हें ध्यान ही न रहा । श्रस्तु जीवात्मा की अज्ञानता को लक्ष्य करके कबीर कहते हैं : जागु पियारी अब का सोवै । रैन गई दिन काहे को खोवै ॥ जिन जागा तिन मानिक पाया । तैं बौरी सब सोइ गँवाया || पिय तेरे चतुर, मूरख तू नारी । कबहुँ न पिय की सेज सँवारी ॥ इसी प्रकार नारी की अशुचिता का आरोप करके वे जीवात्मा से कहलवाते हैं : मेरी चुनरी में परि गयो दाग पिया । पांच तत्त की बनी चुनरिया, सोरह से बंद लागे जिया । यह चुनरी मेरे मैके ते श्राई, ससुरा में मनुनाँ खोय दिया मलि मलि धोई दाग न छूटा, ज्ञान को साबुन लाय पिया | कहै कबीर दाग कब छुटि हैं, जब साहब अपनाय लिया ॥ और नारी के बलापन और असमर्थता का ध्यान रख कर वे कहते हैं : For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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