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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अलोचना खंड १०५. प्रतिष्ठित किया था, परन्तु गोकुल गाँव के सरल और सरस जीवन में ही सूर ने कुछ ऐसा माधुर्य भर दिया कि मुसलमान कवि रसखान भी उस सरल जीवन पर तीनों लोकों का राज्य निछावर करने को प्रस्तुत हो गया था। मीरा ने न तो हिन्द-समाज को लिया, न गाँव अथवा घर के एक छोटे से समाज को। उस कवि-गायिका का क्षेत्र एक व्यक्ति तक ही सीमित रहा और उस व्यक्ति विशेष के भी केवल विरह-निवेदन की अोर मीरों की विशेष रुचि रही । इस सीमित दृष्टिकोण ने जहाँ उनकी व्यापक भक्ति भावना को क्षति पहुँचाई, वहाँ भावों की गहराई में मीराँ अद्वितीय प्रमाणित हुई। उन्होंने समस्त राष्ट्र और जाति को, गाँव और घर के सरल समाज को राममय और कृष्णमय नहीं किया, परंतु गिरधरनागर के प्रेम में उन्मत्त अपने व्यक्तित्व को ही इतना ऊँचा उठा दिया कि उनके मधुर संगीत पर, उनके एक-एक पद पर केवल हिन्दु समाज ही नहीं मानव मात्र मुग्ध हुए बिना नहीं रह सकता । सारांश यह कि जहाँ गुसाई तुलसीदास ने सम्पूर्ण हिन्दू-समाज को 'राममय' कर दिया, सूर ने गो, गोकुल और गोपियों को श्रीकृष्णमय बनाया वहाँ मीराँ ने व्यक्ति-व्यक्ति के हृदय में आध्यात्मिक प्रेम की लौ जलाई। जीव और ब्रह्म का सम्बंध भारतीय दार्शनिक चिन्तन की एक प्रमुख समस्या रही है । उपनिषद् काल के ऋषियों ने इस सम्बंध में बड़ा गम्भीर चिन्तन और मनन किया था और अंत में वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे थे कि वस्तुतः परमात्मा और जीवात्मा एक ही हैं उनमें कोई अंतर नहीं । इसी विचार-धारा का तार्किक विकास करते हुए जगद्गुरु शंकराचार्य ने अतिवाद का प्रतिपादन करके यह मत स्थिर किया था कि वास्तव में जीव और ब्रह्म अभिन्न हैं---'गिरा अरथ जल बीचि सम, कहियत भिन्न न भिन्न ।'-और यह जो १ या लकुटी अरु कामरिया पर राज तिहूँ पुर को तजि डारौं । आठहु सिद्धि नवों निधि को सुख नन्द की गाय चराय बिसारौं । कोटिन हू कलधौत के धाम करील के कुञ्जन ऊपर वारौं। रसखान कहै इन आँखिन से ब्रज के बन बाग तड़ाग निहारौं ।। For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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