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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १०० मीराँबाई भक्ति-भावना समुद्र की एक तरंग के समान है जो अचानक ही उठ कर तटप्रांत को जलमय कर देती है। उसकी कोई सीमा नहीं कोई थाह नहीं, कोई आदि नहीं, कोई अंत नहीं । एक बार जग जाने पर वह कोई अवरोध नहीं मानती । दूसरी ओर ज्ञान एक ऊँचे पर्वत के समान है, उच्च, गम्भीर और गहन । ज्ञान के गहन मार्ग पर चलने वाले उद्धव भक्ति के इस तरल आवेग से अभिभूत हो गये, यही भक्ति की सच्ची विजय थी। कवि-हृदय सूर ने भक्ति की ऐसी कवित्वपूर्ण विजय दिखाई है कि हृदय मुग्ध हो जाता है। ___ परंतु मीराँ को ज्ञान से कोई मतलब ही न था। वह भक्त थीं, अतएव भक्ति के अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु से उनका कोई सम्बंध न था, संघर्ष न था, द्वेष न था ईर्ष्या न थी। भक्ति को ज्ञानसे श्रेष्ठ समझकर तो उन्होंने भक्ति की नहीं थी, इसीलिए भक्ति को ज्ञान से श्रेष्ठ प्रमाणित करने की उन्हें कोई श्रावश्यकता ही न पड़ी । जिस समय उद्धव गोपियों के पास श्रीकृष्ण का संदेश लेकर आए उस समय मीराँ की गोपियों ने कोई तर्क नहीं किया, कोई उपालम्भ नहीं सुनाया, केवल अपने अंतरतम की पीड़ा सरलतम शब्दों में प्रकट कर दिया: अपणे करम को वो छै दोस काकूँ दीजै रे ऊधो || अपणे॥टेक॥ सुणियो मेरी बगड़ पड़ोसण, गेले चलत लागी चोट । पहली ग्यान मान नहिं कीन्हौ मैं ममता की बाँधी पोट । मैं जाण्यं हरि नाहिं तजेंगे, करम लिख्यो भलि पोच । मीरों के प्रभु हरि अविनासी, परो निवारो नी सोच ॥ [ मीराबाई की पदावली पद स० १८४ प ० ८७ ] मीराँ की गोपियों ने मीरों की ही भाँति कुछ समझ बूझ कर तो प्रेम और भक्ति की नहीं थी वह प्रेम और भक्ति तो रास्ते चलते अचानक चोट लग जाने जैसी बात थी, उसके कारण यदि विरह व्यथा सहनी ही पड़ी तो दोष केवल अपने कर्म का है । भक्ति की मीराँने कितनी सुंदर व्याख्या की है'गेले चलत लागी चोट ।' जीवन-पथ पर चलते हए यह जो अचानक हृदय For Private And Personal Use Only
SR No.020476
Book TitleMeerabai
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreekrushna Lal
PublisherHindi Sahitya Sammelan
Publication Year2007
Total Pages188
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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