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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३३८ ) उत्पत्ति नहीं होती है बल्कि भ्रान्ति के तिमिर में रहते रहने से हम इसे देख (अनुभव कर) नहीं पाये है। अलग्यावरणाः सर्वे धर्माः प्रकृतिनिर्मलाः । आदौ बुद्धास्तथा मुक्ता बुध्यते इति नायकाः ॥९॥ सभी जीव स्वभाव से बन्धन-राहत तथा निर्मल है । आदि से वे प्रकाशमान एवं मुक्त है । इस पर भी विद्वान यह कहते हैं कि मनुष्य प्रात्म-तत्त्व को जानने की क्षमता रखते हैं । अपने भाष्य में श्री शंकराचार्य ने किसी मनुष्य के द्वारा एक प्रश्न पूछे जाने के बाद यह दावा किया है कि प्रस्तुत मंत्र में इस प्रश्न का उत्तर पाया जाता है । आपत्ति करने वाले की यह शंका है-“गत 'कारिका' में यह कहा गया है कि प्रात्मा को ढकने वाले प्रावरण का नष्ट होना संभव नहीं । इस से तो वेदान्त'नुयायी इस बात को स्वीकार करते हैं कि जीवों के वास्तविक स्वभाव पर पर्दा पड़ा हुप्रा है ।" इस मंत्र में उपरोक्त शंका का समाधान किया गया है। सभी जीवों का प्राध्यात्मिक-तत्त्व सर्वदा शुद्ध रहता है और यह किसी ज्ञात वस्तु द्वारा सीमाबद्ध नहीं होता क्योंकि इसके सभी सीमा-बन्धन मन के मिथ्या स्वप्न के कारण उत्पन्न होते है । भगवान् शंकराचार्य कहते हैं-"ये स्वभाव से परिशुद्ध, प्रकाशमान और प्रादि-काल से मुक्त हैं क्योंकि प्राकृतिक पवित्रता, ज्ञान तथा मुक्ति इनके सहज गुण हैं।" यदि इस बात को ठीक मान लिया जाए तो क्या कारण है कि उपनिषदाचार्यों द्वारा जीवों को “परम-तत्त्व को जानने की क्षमता" रखने वाला कहा गया है । इसे स्पष्ट करने के किए श्री शंकराचार्य एक दृष्टान्त देते हैं। अपने सामान्य व्यवहार में हम कहते हैं-"सूर्य उदय होता है, सूर्य अस्त होता है; सूर्य दूरस्थ पहाड़ी के ऊपर है इत्यादि ।" इन सब मामलों में हम यह बात पूरी तरह जानते हैं कि सूर्य न तो उदय होता है, न अस्त होता है और न ही किसी पहाड़ो के ऊपर स्थित रहता है । इस तरह पहाड़ी For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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