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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उतना अधिक हम इन पदार्थों को वास्तविक समझते रहेंगे । जो व्यक्ति इससे विपरीत धारणा रखते हैं उनके लिए बाह्य संसार की कोई सत्ता नहीं है । ऐसे व्यक्ति तो यह कहते हैं कि हमारा मन ही बहिर्मुख होकर विविध दिशाओं में विच्छिन्न होता प्रतीत होता है । जिसने उपासना द्वारा अपने मन को एकत्र करके धर्म-ग्रन्थों के अध्ययन में लगाया है (अर्थात् जिसने इन उपदेशों को सहृदयता और सद्भावना से पढ़ा तथा इनके अन्तर्निहित एवं अतीत रहस्य पर ध्यान जमाया है) वह अपने मन का अतिक्रमण करके आत्मानुभूति कर लेता है । ऐसे सिद्ध पुरुष को 'द्वैत' का अनुभव नहीं होता और उपनिषदों के कथनानुसार वह फिर जन्म नहीं लेता क्योंकि उसके लिए पुनः संसार में आने का कोई कारण नहीं रहता। जन्म लेने का उद्देश्य ऐसे अवसर की व्यवस्था करना है जब हमारा मन सन अनुभवों को प्राप्त करता है जिनकी उसने बीते समय में अपनी क्रिया, विचार और वासनानों द्वारा अनजाने मांग की थी। आत्मा से साक्षात्कार कर लेने पर यह लालसा किसी प्रकार की प्रतिक्रिया नहीं करती जिससे हमें ऐसी परिस्पितियों से कोई काम नहीं रहता जो हमारे लिए नये नये अनुभव जुटा सकें । जिस मनुष्य ने अपना वास्तविक स्वरूप जान लिया वह आत्मा में ही रमण करने लगता है; अतः उसे इस अज्ञान-क्षेत्र में प्रवेश करने की रत्ती भर आवश्यकता महसूस नहीं होती। मन को जीतने का अर्थ जीवात्मा का संहार होता है । संसार में हमें जिस जन्म-मृत्यु, हर्ष-विषाद, सफलता-विफलता आदि की अनुभूति होती है वह सब हमारे मिथ्याभिमान तक सीमित रहती है। जब जीवात्मा का ह्रास होता है तो प्राणी को जन्म-मरण का बन्धन जकड़ नहीं सकता। हमारे असंख्य जन्म-मरण का उद्देश्य यह है कि हम निरन्तर प्रयत्नशील रह कर अपने वास्तविक स्वरूप को जान सके । यदि हम एक बार इस गुह्य-तत्व को जान लें तो हमें जन्म-मृत्यु की इस आँख-मिचौनी से कोई प्रयोजन नहीं रहता । जिस क्षण मुझे प्रात्म-स्वरूप का ज्ञान हो जाता है उसी क्षण में जन्म-मरण के पाश से मुक्त हो जाता हूँ। For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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