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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २८४ ) सकता है ? प्राकाश में दिखायी देने वाला इन्द्र-धनुष मिथ्या है जिससे यह न तो आकाश में से निकलता है और न ही उसमें प्रविष्ट होता है । ऐसे ही विक्षिप्त मन के सम्पर्क में आने पर विशुद्ध-चेतना गतिमान् होती प्रतीत होती है और इस (मन) के प्रकम्पन में विविध नाम-रूप पदार्थों का आभास देने लगती है । ये अनेक आकार संसार की रचना नहीं करते और न ही यह संसार विशुद्ध चेतना में ही लीन होता है। आने वाले मंत्रों में इस दृष्टान्त की अनुकूलता को विस्तार से समझाया जायेगा। विज्ञाने स्पन्दमाने वै नाऽऽभासा अन्यतोभुवः । न ततोऽन्यत्र निस्पन्दान्न विज्ञानं विशन्ति ये ॥५१॥ न निर्गतास्ते विज्ञानात् द्रव्यत्वाभावयोगतः । कार्यकारणताभावाद्यातोऽचिन्त्यः सदैव ते ॥५२॥ जब चेतना को स्पन्दन के विचार से देखते हैं तब इसमें दिखायी देने वाले रूप कहीं अन्य स्थान से नहीं आते । जब यह क्रिया-रहित दिखायी देती है तब इस निश्चेश्ठ चेतना से वे रूप कहीं दूसरे स्थान पर नहीं चले जाते ।।५१॥ ____ इन रूपों का चेतना में कभी प्रवेश नहीं होता और न ही ये इसमें से बाहर निकलते हैं क्योंकि इनमें कोई यथार्थता नहीं है। ये (रूप) हमारी कल्पना-शक्ति से परे रहते हैं क्योंकि इनमें कारण-कार्य भाव की कोई प्रतिक्रिया नहीं रहती ।।५२॥ इन दो मंत्रों में 'अलात' के दृष्टान्तों को अंश में स्पष्ट करके हमें बताया गया है कि अध्यात्म-क्षेत्र में 'विशुद्ध-चेतना' इस (पालात) के समान क्रियमाण होती प्रतीत होती है। इन दोनों में जो समानता पायी जाती है वह इन मंत्रों के ऊपर दिये गये अर्थ से ही स्पष्ट हो जायेगी । यदि हमें किसी कठिनाई का सामना करना होगा तो वह यह है कि इन मिथ्या नाम-रूप पदार्थों के प्रकट होने के कारण तथा इनके दिखायी देने की विधि हमारी समझ में नहीं पा सकती। For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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