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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २७७ ) उपलम्भात्समाचारान्मायाहस्ती यथोच्यते । तथोत्यते ॥४४॥ उपलम्भात्समाचारादस्ति वस्तु जिस प्रकार एक मायारूपी हाथी की कल्पना होती है, क्योंकि यह दिखाई देता और हाथी की चेष्टाएँ करता है, वैसे ही विविध पदार्थ इस कारण विद्यमान प्रतीत होते हैं कि हम उन्हें देखते हैं और वे हमारे व्यवहार में प्राते हैं । वस्तुतः दृष्ट-पदार्थ माया रूपी हाथी की तरह काल्पनिक हैं 1 यह जादू का एक सुविख्यात खेल है जो प्राचीन भारत में दिखाया जाता था । इस खेल का उदाहरण वेदान्ताचायों द्वारा अनेक बार दिया गया है । भारतीय जादूगर तंत्र, जड़ी-बूटियों आदि के द्वारा दर्शकों के मन में एक ऐसी भ्रान्ति उत्पन्न कर देते हैं जिससे वे अपने सामने एक बृहदाकार हाथी को खड़ा देखने लगते हैं । वह हाथी न केवल वास्तविक हाथी से मिलताजुलता है बल्कि उस पर जीवित हाथी की भाँति सवारी आदि भी की जा सकती है । इस तरह दो कारणों से हम उस मायारूपी हाथी को सच्चा चानते हैं(१) वह दिखायी देता है और (२) हम उसे विविध कामों के लिए उपयोग में ला सकते हैं । ऊपर के दो कारणों से यह पदार्थमय संसार द्वैतवादियों को वास्तविक दिखायी देता है । यहाँ श्री गौड़पाद इस विश्वास की निरर्थकता को सिद्ध करने का प्रयास कर रहे हैं। ऋषि कहते हैं कि ऊपर बतायी गये दो कारणों से माया - हस्ती 'मिथ्या' होने पर भी वास्तविक दिखायी देता है । ऐसे ही जाग्रतावस्था में स्थूल पदार्थों को देखते एवं व्यवहार में लाते रहने से हम यह नहीं कह सकते कि वे वास्तविक हैं । द्वैतवादियों द्वारा बहुधा कथित उपर्युक्त दो कारणों से हम यह सिद्ध नहीं कर सकते कि बाह्य पदार्थ विद्यमान रहते 1 हैं | पदार्थमय संसार की अनुभूति करते रहने पर भी हमें अद्वितीय परमात्मतत्त्व की सत्ता को मानना पड़ेगा क्योंकि संसार तो इस (तत्व) पर प्रारोपमात्र और इस की स्वतः कोई सत्ता नहीं । For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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