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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( २२६ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वास्तविक स्वरूप का ज्ञान हो जाता है । ज्योंही यह मन प्रज्ञान के पर्दे का भेदन करके सभी विक्षेपों से मुक्त हो जाता है त्योंही इसकी पृथक् सत्ता समाप्त हो जाती है क्योंकि हमें यह रहस्य पहले ही विदित है कि वास्तव में मन विचारों की अविरल धारा ही है । जिस क्षण हमारा मन आत्म हत्या कर लेता है उसी क्षण इसे 'आत्मा' के दर्शन हो जाते हैं अर्थात् यह स्वयं आत्म-स्वरूप बन जाता है । हम जानते हैं कि संस्कृत भाषा में इस अनादि शक्ति को 'आत्मा' कहते हैं । यहाँ हमें इस बात को भूलना नहीं चाहिए कि श्री गौडपाद दृष्ट-पदार्थों से चल कर शरीर, मन और शक्ति के मार्ग पर अग्रसर होने वाले साधक का मथासंभव पथ-प्रदर्शन कर रहे हैं । आत्म-साक्षात्कार करने के समय साधक को 'ब्रह्म' की अनुभूति होती है न कि 'आत्मा' की । यहाँ 'ब्रह्म' का उल्लेख जान-बूझ कर किया गया है और इसी में ऋषि का बुद्धि चातुम्यं पाया जाता है । इस शब्द (ब्रह्म) को लिखने का यह अभिप्राय है कि 'आत्मा' का दर्शन करने पर साधक सर्व व्यापक सत्ता 'ब्रह्म' को भी अनुभव कर लेता है । यहाँ इस बात को स्मरण रखना लाभप्रद होगा कि श्री शंकराचा ने भी अपने भाष्य में कहा है कि 'ज्ञान' का अर्थ 'आत्मा' का 'परमात्मा' से एकीकरण होना है । - परमात्मा बन जाता रहने पर मनुष्य हाँ रहती है । शान्ति संक्षेप में मन की सत्ता समाप्त कर देने पर मनुष्य । दूसरे शब्दों में परमात्मा के मन का अस्तित्व बनाये जाता है । अशान्ति के रहने पर ही मन की सत्ता बनी होने पर परमात्मा की अनुभूति होती है । जब अपने वास्तविक स्वरूप का ज्ञान न रहने पर हम अज्ञानवश संकल्प-विकल्प, विचार प्रादि के प्रकम्पन से विचलित होते हैं तब हमें अशान्ति का अनुभव होता है किन्तु इस विचलित स्थिति पर विजय प्राप्त करते ही यह अशान्ति लुप्त हो जाती है । इसलिए हम इस परिणाम पर पहुँचते हैं कि जब मनुष्य अपने मन का अस्तित्व खो देता है तब उसे आत्मानुभूति होती है । प्रस्तुत मंत्र में 'ग्रात्मा' के लिए, जिस समय हम इसे अनुभव कर For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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