SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 184
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १६६ ) वाले मनुष्यों को भी समझाने के उद्देश्य से श्री गौड़पाद कहते हैं कि किसी घटाकाश में धूम्र अथवा धलि होने से यह नहीं समझना चाहिए कि विश्व भर के सभी घटाकाश धूम्र या धूलि से मलीन हो जाते हैं। 'राग' और 'द्वेष' से पूर्ण मन वाले मनुष्य को संसार में अनकल तथा प्रतिकूल दृश्य दिखायी देते हैं । संसार में रहने वाले प्राणियों में बहत अधिक संख्या उन व्यक्तियों की है जो शरीर के सीमित ज्ञान से ही परिचित रह कर भ्रान्ति तथा पाशविक प्रवृत्ति का शिकार बने रहते हैं जिससे वे संसार के इष्ट अथवा अनिष्ट अनुभवों में ही उलझे रहते हैं । यदि किसी युग में किसी एक महात्मा ने अपने शरीर, मन तथा बद्धि पर विजय प्राप्त कर ली अर्थात् इस मिथ्या बन्धन को तोड़ दिया तो वह परम-शान्ति को अनुभव कर लेगा । __ 'पात्मा' का वास्तविक स्वरूप तो सच्चिदानन्द-धन है । हमारे मन एवं बुद्धि तथा इनसे होने वाले सभी बन्धन हमें इस 'परम-सत्य' से पृथक् रखते हैं । धुम्र अथवा धुलि होने पर भी 'घटाकाश' विशुद्ध रहता है क्योंकि धूम्रादि द्वारा वातावरण धूमिल हो सकता है न कि 'घटाकाश' जो सब प्रकार निलिप्त है। __ आत्मा को खिन्न अथवा दुःखी इस लिए नहीं कहा जाता कि आत्मा को इन अप्रिय परिस्थितियों का अनभव होता है बल्कि इसके प्रावरण मन को इन क्लेशों की अनुभूति होती रहती है । मेघाच्छन्न आकाश को देखने पर बालक इसे धूलि-धूसरित कहने लगते हैं । वस्तुतः आकाश को मेघ किसी प्रकार दूषित नहीं करते । इन बालकों को छोटे-छोटे जल-कण, जो इधर-उधर घूमते रहते हैं, दुषित आकाश के रूप में दिखायी देते है । यदि वेदान्त-विहित साधन-क्रिया द्वारा-जिसे दसरे शब्दों में विवेक, ज्ञान तथा त्याग कहा जाता है -हम अपने विकृत मन का अतिक्रमण करें तो निज वास्तविक स्वरूप को हम भली-भाँति जान सकेंगे । सब कोई ऐसा कर सकते हैं । असमर्थता की भावना हममें इस लिए आती है कि हम मिथ्या बन्धनों में जकड़े रहते हैं । इस दयनीय अवस्था से मनुष्य अपने प्रयत्न द्वारा ही मुक्त हो सकता है। रूपकार्यसमाख्याश्च भिद्यन्ते तत्र तत्र वै। प्राकाशस्य न भेदोऽस्ति तद्वज्जीवेषुनिर्णयः ॥६॥ रूप, कार्य और नाम में कहीं-कहीं भेद होने पर भी भेद-रहित For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy