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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १५१ ) बाह्य-पदार्थों को इस छाया की भांति अवास्तविक समझ लेने पर हमें इनके प्रति किसी तरह का 'राग' नहीं रहेगा । जहाँ 'राग' नहीं वहाँ 'द्वैष' कैसे आ सकता है ? 'द्वेष' के लिए 'राग' ही उपजाऊ भूमि है। 'द्वेष' तथा 'क्रोध' एक ही श्रेणी से सम्बन्ध रखते है । 'राग' के साथ 'भय' का होना अनिवार्य है । इसलिए उपनिषदों में इस सनातन तथ्य को प्रकट किया गया है कि परमात्म-तत्त्व ही 'निर्भय' है । भय तो उसे होगा जिसका कोई प्रतिद्वन्द्वी हो । जो एकमात्र सत्ता है भला उसे किससे भय हो सकता है ।। जिस वर्तमान अवस्था में हम सब प्रकार के भय से मोक्ष पाते हैं वह प्रगाढ़-निद्रा की अवस्था है जिसमें हमें केवल एकरूपता का अनुभव होता रहता है। जिस क्षेत्र में किसी और का प्रवेश हो वहाँ 'भय' का होना स्वाभाविक है । अत: 'साधन' के प्रारम्भ में राग, क्रोध और भय पर विजय पाना आवश्यक है क्योंकि उनको त्यागने पर हम 'साधन' में प्रगति कर सकते हैं। इस प्रयास में सफलता प्राप्त करने के लिए 'तप', 'व्रत', 'सेवा' अथवा आध्यात्मिक पूर्णता के किसी अन्य साधारण उपाय से हमें कोई सहायता नहीं मिलेगी। इनमें से कोई भी साधन हमारी मौलिक अविद्या को दूर नहीं कर सकता क्योंकि इस दिशा में हमें उपनिषदों का पर्याप्त ज्ञानोपार्जन करना होगा । इसलिए यहाँ कहा गया है कि महान् ऋषि वेदों के प्रमत-ज्ञान के पारंगत विद्वान है। प्रस्तुत मंत्र में साधक को एक शुभ एवं गुह्य संकेत दिया गया है जो यह है कि ज्ञान-मार्ग को अपनाने का साहस करने वाला साधक उपनिषदों के साहित्य का पूर्ण रूप से अध्ययन करे । जब कोई साधक उपनिषदों के यथार्थ मर्म को जान लेता और मनन तथा ध्यान के द्वारा राग-द्वेष आदि ( अपने भीतरी दोषों) पर विजय प्राप्त कर लेता है तब उसका उच्छं, खल मन उसके वश में हो जाता है । हमारी कल्पना ही हमें असफल बनाती तथा भय को उत्पन्न करती है। कल्पना पर विजय पाने पर ही हम अपने मन को जीत सकते हैं । जब मन पूर्णतया हमारे वश में आ जाता है तभी हमें प्रात्मानुभुति होती है । पिछले मन्त्र में पदार्थमय-संसार के लिए 'इदम्' शब्द का प्रयोग किया For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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