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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १४६ ) अभी हमने कहा है कि हमें कोई ऐसा दार्शनिक तथ्य मान्य नहीं जो किसी विशेष दर्शनाचार्य के व्यक्तिगत अनुभव अथवा मत पर आधारित हो । हिन्दु धर्म-शास्त्रों की इस महान मर्यादा का पालन करते हुए श्री गौड़पाद ने अपने अनुभव का कोई हवाला नहीं दिया बल्कि प्राचीन प्राचार्यो तथा द्रष्टाओं का मत दिया है। वीतराग भयक्रोधैर्मुनिभिर्वेदपारगैः ।। निर्विकल्पो ह्ययं दृष्टः प्रपंचोपशमोऽद्वयः ॥३५॥ प्राचीन महान् तत्त्व-वत्तानों ने, जो राग, भय और क्रोध से रहित थे और जिन्होंने उपनिषद् के तथ्यों को समझ लिया था, इस आत्मा को अनुभव किया जो कल्पनातीत, माया के प्रपञ्चों से रहित और शाश्वत एवं अद्वैत है। जिस ग्रन्थ की हम व्याख्या कर रहे हैं वह 'प्रकरण ग्रन्थ' (निर्देश-पुस्तक) कहा जाता है। यह कोई शास्त्र नहीं जिसमें सिद्धान्तों का सविस्तार प्रतिपादन किया गया हो । 'प्रकरण ग्रन्थ' में आचार्यों को सम्बन्धित साहित्यिक कृति के परम्परागत नियमों का पालन करते हुए साधन के विविध ढंगों को समझाना पड़ता है। हमने बार-बार कहा है भारत के दर्शन-सिद्धान्त केवल अन्ध-विश्वास तथा आध्यात्मिक प्रचार को प्रोत्साहन देने के उद्देश्य से नहीं रचे गये । व्यवहार-कुशल आर्य किसी दर्शन-सिद्धान्त को उस समय तक स्वीकार नहीं करते थे जब तक इस अन्तर्गत विषय में जीवन के उस साधन की व्यवस्था नहीं की जाती जिसको प्रयोग में लाने से वह पूर्णता के स्तर तक ऊँचे उठ सके। ऐसे ग्रन्थ में चाहे कितने महान् एवं शुभ दृष्टि-कोण की व्याख्या की गयी हो किन्तु उपरोक्त व्यवस्था के अभाव में वह सर्वथा अमान्य होगा। इससे हमें यह पता चलता है कि जिस हिन्दु दर्शन-शास्त्र में आत्मपूर्णता के साधन का समावेश न किया गया हो वह ग्रन्थ अधूरा ही समझा जायेगा। जब हम इस दिशा में देखते हैं तो हिन्दनों के भौतिकवादी चार्वाक के मत को भी षड्दर्शनों में स्थान देना उचित प्रतीत होता है क्योंकि 'चार्वाकग्रन्थों' में न केवल विशेष दार्शनिक दृष्टि-कोण का विस्तार से वर्णन किया For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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