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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १४२ ) स्वप्नमाये यथा दृष्टे गन्धर्वनगरं यथा । तथा विश्वमिदं दृष्टं वेदान्तेषु विचक्षणः ॥३१॥ जिस तरह मिथ्या स्वप्न में गन्धों की विशाल नगरी दिखायी पड़ती है वैसे ही अनुभव प्राप्त करने वाले वेदान्ती को यह विश्व मिथ्या दृष्टिगोचर होता है । द्वैतभाव को यहाँ तर्क द्वारा समझाया गया है । इसके द्वारा हमें दृष्टसंसार का स्वरूप बताया गया है । प्रथम अध्याय में शास्त्रों के कथन की दृष्टि में प्रत्यक्ष संसार को प्रसार कहा गया था । प्रस्तुत अध्याय में स्थूल संसार की अवास्तविकता को तर्क एवं प्रमाण द्वारा स्पष्ट करने का प्रयास किया जाता है । यदि पदार्थमय संसार को प्रसार माना जाए तो हमें यह जानना होगा कि इस (संसार) को हम अपने अज्ञान के कारण ही प्रत्यक्ष रूप में देखते हैं। हमारे जीवन में ऐसी अनेक घटनाएँ घटित होती रहती हैं जब हम शान्त भाव से सोच-विचार करने पर उन सब वस्तुओं को सारहीन समझते लगते हैं जिन्हें हम मानसिक भ्रान्ति के कारण वास्तविक समझते आये हैं। प्रत्यक्ष संसार के अनेक दृश्यों के विषय में वेदान्त-शास्त्र का मत है कि ये सब हमारे मन की भ्रान्ति की उपज हैं । साधक के इस विश्वास को दृढ़ करने के उद्देश्य से उदाहरण दिये जाते हैं। स्वप्न के प्रभाव से हम ऐसे अनुभव-क्षेत्र में प्रवेश करते प्रतीत होते हैं जिसका कोई आधार नहीं और जो स्वप्न देखने के समय वास्तविक दिखायी देता है । ठीक इस तरह प्रकृति के सभी नियमों के प्रतिकूल एक ऐसा तंत्रजाल बिछा हुआ है मानों किसी जादूगर ने यह सब आडम्बर रच दिया हो । यद्यपि हम इस स्थूल संसार को मिथ्या जानते हैं तथापि देखने में यह वास्तविक ही मालूम देता है । कभी-कभी जब हम आकाश के बादलों को देखते हैं तो वहाँ हमें विविध For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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