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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यहाँ यह प्रश्न उठाया जा रहा है कि इस मिथ्या संसार का द्रष्टा अथवा ज्ञाता कौन है ? जो व्यक्ति सामान्य पदार्थों की वास्तविकता को सिद्ध करने के लिए बुद्धि का प्राश्रय लेते हैं वे वेदान्त-शास्त्र के अनुयायियों को खुले रूप से अपना मत मानने लिए बाध्य करना चाहते हैं। कल्पयत्यात्मनात्मानामात्मा देवः स्वमायया । स एव बुध्यते भेदानिति वेदान्त निश्चयः ॥१२॥ वेदान्त-दर्शन में यह बात निश्चय-पूर्वक कही गयी है कि दिव्य आत्मा अपनी माया-शक्ति के द्वारा अपने-आप में स्वयं सभी पदार्थों की कल्पना करता है और वह बाह्य एवं भीतर के जगत में व्यक्तिगत अनुभव प्राप्त करता रहता है । जिन पदार्थों की वह (आत्मा) सृष्टि करता है उनका यह एकमात्र ज्ञाता है । पिछले मन्त्र में हमने देखा कि एक व्यक्ति द्वारा यह प्रश्न किया गया कि बाहर और भीतर के जगत की अनुभूति अथवा इसे प्रकाशमान करने वाला कौन है । इस मन्त्र में ऋषि ने इस शंका का समाधान किया है। वेदान्त में पदार्थमय दृष्ट संसार को मिथ्या कहा गया है क्योंकि यह जीवनस्फुलिंग प्रात्मा पर आरोपमात्र है । शुद्ध चैतन्य आत्मा अपनी माया के द्वारा मुग्ध होकर अपने आप पदार्थमय संसार की सृष्टि करता है जो उसके बिना और कुछ नहीं है क्योंकि यह (आत्मा) सर्वव्यापक तथा अनादि है। हमारे लिए इस स्थिति को, जिसमें हम स्वयं माया-विमुग्ध हो कर पदार्थमय संसार की सृष्टि करते हैं, सहसा समझ लेना इतना सुगम न होगा। यदि हम अपने भीतर स्वप्न के अनुभव का विश्लेषण करें तो हमें इस बात का स्पष्ट रूप से पता चल जायेगा । स्वप्न-द्रष्टा का अनुभव उस क्षण प्रारम्भ होता है जब वह अपने व्यक्तित्व को भूल जाता है । अपने आप को भूल कर अनुभव होने वाले जगत में प्रवेश करने वाली उसकी शक्ति कहीं बाहिर से नहीं आयी; वास्तव में यह शक्ति उसके अपने भीतर विद्यमान है और इसके द्वारा ही वह स्वयं ठगा जाता है । For Private and Personal Use Only
SR No.020471
Book TitleMandukya Karika
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChinmayanand Swami
PublisherSheelapuri
Publication Year
Total Pages359
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size17 MB
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