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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३११ ) विदेह का उदारतापूर्ण उत्तर सुनाना ( आश्रम० १३ अध्याय)। लोकोंकी प्राप्ति होगी ( आश्रम २६ । २०-३३)। इनका धृतराष्ट्रके साथ वनको प्रस्थान (आश्रम १५ । व्यासजीद्वारा धर्म, विदुर और युधिष्ठिरकी एकताका ८)। वनके मार्गमें धृतराष्ट्र आदिका गङ्गातटपर निवास प्रतिपादन (आश्रम० २८ । १६-२२ ) । विदुरने और विदुरका उनके लिये कुशकी शय्या बिछाना (आश्रम स्वर्गमें जाकर धर्मके स्वरूपमें प्रवेश किया (स्वर्गा० ५। १८ । १६-२०)। विदुरकी सम्मतिसे धृतराष्ट्र का भागी २२)। रथीके पावन तट पर निवास ( आश्रम० १९।१)। महाभारतमें आये हुए विदुरके नाम-आजमीढ़, भारत, कुरुक्षेत्रमें पहुँचकर धर्म और अर्थके ज्ञाता, उत्तम बुद्धि भरतर्षभ, कौरव, क्षत्ता, कुरुनन्दन आदि । नोविदाजी वल्कल और चीर वस्त्र धारण किये गन्धारी विटरागमनराज्यलम्भपर्व-आदिपर्वका एक अवान्तर तथा धृतराष्ट्रकी सेवा करने लगे। वे मनको वशमे करके पर्व (अध्याय १९९ से २१७ तक)। अपने दुर्बल शरीरसे घोर तपस्यामें संलग्न रहते थे विदुला-एक प्राचीन क्षत्रिय महिला, जिसने रणभूमिसे (आश्रम० १९ । १४)। वनमें युधिष्ठिरने धृतराष्ट्रसे भागकर आये हुए अपने पुत्रको कड़ी फटकार दी थी विदुरजीका पता पूछा (आश्रम० २६ | १५)। धृत (उद्योग० १३३ अध्याय)। इसका अपने पुत्रको राष्ट्रने उत्तर दिया-विदुर सकुशल हैं । वे बड़ी युद्धके लिये उत्साहित करना ( उद्योग. १३४ कठोर तपस्यामें लगे हैं । निरन्तर उपवास करते और अध्याय)। इसके द्वारा पुत्रके प्रति शत्रुवशीकरणके वायु पीकर रहते हैं। इसलिये अत्यन्त दुर्बल हो गये हैं। उपायोंका निर्देश ( उद्योग. १३५ । २५-४०)। उनके सारे शरीरमें व्याप्त हुई नस-नाडियाँ स्पष्ट दिखायी इसका पुत्रको आश्वासनगर्भित उपदेश देना ( उद्योग देती हैं । इस सूने वनमें ब्राह्मोको कभी-कभी कहीं १३६ । १-१२)। उनके दर्शन हो जाया करते हैं (आश्रम० २६ । १६. १७)। इसी समय मुखमें पत्थरका टुकड़ा लिये जटा. विदूर-ये महाराज कुरुके द्वारा दशाई कुलकी कन्या धारी कृशकाय विदुरजी दूरसे आते दिखायी दिये। उनके शुभाङ्गीके गर्भसे उत्पन्न हुए थे। इन्होंने मधुवंशकी सारे शरीरमें मैल जमी हुई थी। वे दिगम्बर थे। वनमें कन्या सम्प्रियाके साथ विवाह किया, जिसके गर्भसे अनश्वा उड़ती हई धूलोंसे नहा गये थे । उस आश्रमकी ओर नामक पुत्र उत्पन्न हुआ (आदि. ९५। ३९-४०)। देखकर वे सहसा पीछेकी ओर लौट पड़े ( आश्रम विदूरथ-(१) एक वृष्णिवंशी क्षत्रिय, जो द्रौपदीके २६॥ १८-१९)। राजा युधिष्ठिर अकेले ही उनके पीछे-पीछे स्वयंवरमें गये थे (आदि० १८५ । १९)। ये रैवतक दौड़े । वे कभी दिखायी देते और कभी अदृश्य हो जाते पर्वतपर होनेवाले उत्सबमें सम्मिलित होकर उसकी शोभा थे। जब वे घोर वनमें प्रवेश करने लगे, तब राजा बढ़ा रहे थे ( आदि० २१८ । १.)। इनकी गणना युधिष्ठिरने अपना परिचय देकर उन्हें पुकारा, विदुर यदुवंशियोंके सात प्रधान मन्त्रियों में है ( सभा० १४ । जी वनके भीतर एकान्त प्रदेशमें किसी वृक्षका सहारा ६० के बाद)। मृत्युके पश्चात् ये विश्वेदेवोंके स्वरूपलेकर खड़े हो गये । उनके शरीरका ढाँचामात्र रह गया में मिल गये थे (स्वर्गा० ५।१६) । (२) एक था। इतनेहीसे उनके जीवित रहनेकी सूचना मिलती पूरुवंशी नरेश, जिसके पुत्रको ऋक्षवान् पर्वतपर रीछोंने थी। युधिष्ठिर उन्हें पहचानकर अपना नाम बताकर पालकर बड़ा किया था ( यह परशुरामके क्षत्रिय-संहारसे उनके आगे खड़े हो गये। महात्मा विदुर युधिष्ठिरकी बच गया था) (शान्ति. ४९। ७५)। ओर एकटक देखने लगे। वे अपनी दृष्टिको उनकी विदेह-(१) राजा निमि, जो देह गिर जाने या देहाभिदृष्टिसे जोड़कर एकाग्र हो गये। अपने प्राणोंको उनके मानसे रहित होनेके कारण विदेह' कहलाते थे। इनके प्राणोंमें और इन्द्रियोंको उनकी इन्द्रियोंमें स्थापित करके वंशमें होनेवाले सभी राजा विदेह कहलाये। इन्हींके उनके भीतर समा गये । तेजसे प्रज्वलित होते हुए विदुरने नामपर मिथिलाको विदेह' कहा जाता है । राजा पाण्डुने योगबलका आश्रय लेकर धर्मराज युधिष्ठिरके शरीरमें अपनी दिग्विजय-यात्राके समय मिथिलापर चढ़ाई की प्रवेश किया । उनका शरीर पूर्ववत् वृक्षके सहारे खड़ा और विदेहवंशी क्षत्रियोंको युद्ध में परास्त किया (आदि. था। आँखें अब भी उसी तरह निर्निमेष थी, परंतु ११२।२८)। इस वंशमें हयग्रीव नामका कुलाङ्गार अब उनके शरीरमें चेतना नहीं रह गयी थी, युधिष्ठिरने राजा उत्पन्न हुआ था ( उद्योग. ७४ । १५-१७)। विदुरके शरीरका दाह-संस्कार करनेका विचार किया। (२) पूर्वोत्तर भारतका एक जनपद (मिथिला), परंतु आकाशवाणीने उन्हें ऐसा करनेसे रोक दिया। जहाँ विदेहवंशी क्षत्रियोंका राज्य था। भीमसेनने पूर्वसाथ ही यह बताया कि विदुरजीको सांतानिक नामक दिग्विजयके समय इस देशको जीता था (सभा० २९ । For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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