SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir धन्वन्तरि ( १६३ ) धनुर्वेद कुछ संक्षिप्त व्यौरा भी दिया है। उसमें चार पाद हैं- है; जैसे-आरामुख, क्षुरप्र, गोपुच्छ, अर्धचन्द्र, दीक्षापाद, संग्रहपाद, सिद्धिपाद और प्रयोगपाद । प्रथम सूचीमुख, भल्ल, वत्सदन्त, द्विभल्ल, कार्णिक, काकतुण्ड दीक्षापादमें धनुर्लक्षण (धनुषके अन्तर्गत सब हथियार इत्यादि । तीरमें गति सीधी रखनेके लिये पीछे पंखोंका लिये गये हैं) और अधिकारियोंका निरूपण है । धनुर्वेदके लगाना भी आवश्यक बताया गया है। जो बाण सारा चार भेद इस प्रकार हैं-मुक्त, अमुक्त, मुक्तामुक्त तथा लोहेका होता है, उसे 'नाराच' कहते हैं । यन्त्रमुक्त । छोड़े जानेवाले बाण आदिको 'मुक्त' उक्त ग्रन्थमें लक्ष्यभेद, शराकर्षण आदिके सम्बन्धमें कहते हैं। जिन्हें हाथमें लेकर प्रहार किया जाय, उन बहुत-से नियम बताये गये हैं। रामायण, महाभारत आदिमें खड्ग आदिको 'अमुक्त' कहते हैं। जिस अस्त्रको चलाने शब्दभेदी बाण मारनेतकका उल्लेख है। अन्तिम हिंदूसम्राट और समेटनेकी कला मालूम हो, वह अस्त्र 'मुक्तामुक्त' महाराज पृथ्वीराजके सम्बन्धमे भी प्रसिद्ध है कि वे कहलाता है। अथवा जिसे छोड़नेके बाद फिर ले लिया जाय शब्दभेदी बाण मारते थे । [-हिंदी-दशब्दसागरसे ] वह भाला, बरछा आदि मुक्तामुक्त है, जो किसी शरद्वान् धनुर्वेदके पारङ्गत विद्वान् और शिक्षक थे। यन्त्रके सहारे छोड़ा जाय जैसे तोपसे गोला, वह अस्त्र इनसे कृपाचार्यने धनुर्वेद पढ़ा और अपने शिष्योंको पढ़ाया प्यन्त्रमुक्त' कहा गया है। अधिकारीका लक्षण कहकर (आदि. १२९ । ३-५, २१, २२, २३)। द्रोणाचार्यने फिर दीक्षा, अभिषेक, शकुन आदिका वर्णन है । यह विज्ञान परशुरामसे प्राप्त किया और कौरव-पाण्डवोंको संग्रहपादमें आचार्यका लक्षण तथा अस्त्र-शस्त्रादिके इसकी शिक्षा दी ( आदि० १२९ । ६६, आदि. १३॥ लक्षणका संग्रह है। तृतीय पादमें सम्प्रदायसिद्ध विशेष ९)। अग्निवेश धनुर्वेदमें अगस्त्यके शिष्य थे ( आदि. विशेष शस्त्रोंके अभ्यास, मन्त्र, देवता और सिद्धि आदि १३८ । ९) । इसे युधिष्ठिरने कौरवदलके भीष्म द्रोण, विषय हैं। प्रयोग नामक चतुर्थ पादमें देवार्चन, सिद्धि, कृप, अश्वत्थामा एवं कर्णमें ही पूर्णतः प्रतिष्ठित बताया अस्त्र-शस्त्रादिके प्रयोगोंका निरूपण है। था (वन० ३७ । ४)। धनुर्वेदके दस अङ्ग और चार शस्त्र, अस्त्र, प्रत्यस्त्र और परमास्त्र—ये भी धनुर्वेदके चरण हैं। (शल्य०६।१४ की टिप्पणी; ४१२९)। चार भेद हैं। इसी प्रकार आदान, संधान, विमोक्ष और चारों पादोंसे युक्त धनुर्वेद मूर्तिमान् होकर भगवान् स्कन्दकी संहार -इन चार क्रियाओंके भेदसे भी धनुर्वेदके चार भेद सेवामें उपस्थित हुआ था (शल्य. ४४ । २२)। होते हैं। वैशम्पायनके अनुसार शार्ङ्गधनुषमें तीन जगह धनष-एक प्राचीन ऋषि, जो उपरिचर वसुके यज्ञके सदस्य झुकाव होता है; पर वैणव अर्थात् बाँसके धनुषका बनाये गये थे ( शान्ति० ३३६ । ७)। झुकाव बराबर क्रमसे होता है। शाङ्गधनुष साढ़े छः धनषान-एक प्राचीन ऋषि जिन्होंने बालधिऋषिके पुत्र हाथका होता है और अश्वारोहियों तथा गजारोहियोंके मेधावीका ऋषियोंका अपमान करनेके कारण विनाश कर कामका होता है । रथी और पैदलके लिये बाँसका ही दिया (वन० १३५ । ५. ५३)। धनुष ठीक है । अग्निपुराणके अनुसार चार हाथका सन्तरि-देवताओंके वैद्य, जो पुराणानुसार समुद्र-मन्थनके धनुष उत्तम, साढ़े तीन हाथका मध्यम और तीन हाथका समय और सब वस्तुओंके साथ समुद्रसे निकले थे। हरिअधम माना गया है। जिस धनुषके बाँसमें नौ गाँठे हों; वंशमें लिखा है कि जब ये समुद्रसे निकले, तब तेजसे उसे 'कोदण्ड' कहना चाहिये । प्राचीनकालमें दो दिशाएँ जगमगा उठी। ये सामने विष्णुको देखकर ठिठक डोरियोंकी गुलेल भी होती थी, जिसे उपलक्षेपक' कहते रहे । इसपर विष्णु भगवान्ने इन्हें अब्ज कहकर पुकारा। थे । डोरी पाटकी और कनिष्ठा अँगुलीके बराबर होनी भगवान्के पुकारनेपर इन्होंने उनसे प्रार्थना की कि यशमें चाहिये । बाँस छीलकर भी डोरी बनायी जाती है । मेरा भाग और स्थान नियत कर दिया जाय । विष्णुने हिरन या भैंसेकी ताँतकी डोरी भी बहुत मजबूत बन कहा, भाग और स्थान तो बँट गये हैं, पर तुम दूसरे सकती है । ( वृद्धशार्ङ्गधर ) जन्ममें विशेष सिद्धि-लाभ करोगे । अणिमादि सिद्धियाँ तुम्हें बाण दो हाथसे अधिक लंबा और छोटी अँगुलीसे अधिक गर्भसे ही प्राप्त रहेगी और तुम सशरीर देवत्व लाभ मोटा न होना चाहिये । शर तीन प्रकारके कहे गये हैं, करोगे । तुम आयुर्वेदको आठ भागोंमें विभक्त करोगे । जिसका अगला भाग मोटा हो, वह स्त्रीजातीय है। द्वापरयुगमें काशिराज धन्वने पुत्रके लिये तपस्या और जिसका पिछला भाग मोटा हो, वह पुरुष जातीय और अब्जदेवकी आराधना की। अब्जदेवने धन्वके घर स्वयं जो सर्वत्र बराबर हो, वह नपुंसकजातीय कहलाता है। अवतार लिया और भरद्वाज ऋषिसे आयुर्वेद-शास्त्रका स्त्री जातीय शर बहूत दूरतक जाता है, पुरुषजातीय अध्ययन करके प्रजाको रोगमुक्त किया । भावप्रकाशमें भिदता खूब है और नपुंसकजातीय निशाना साधने के लिखा है कि इन्द्रने आयुर्वेद-शास्त्र सिखाकर धन्वन्तरिको लिये अच्छा होता है। बाणके फल अनेक प्रकारके होते लोकके कल्याणके लिये पृथ्वीपर भेजा । धन्वन्तरि काशीमें For Private And Personal Use Only
SR No.020461
Book TitleMahabharat Ki Namanukramanika Parichay Sahit
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVasudevsharan Agarwal
PublisherVasudevsharan Agarwal
Publication Year1959
Total Pages414
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy