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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 74 उवसग्गा। (निय.१७९) उवसग्गपरीसहेहिंतो। (भा.९५) उवसप्पिणी स्त्री [उत्सर्पिणी] काल विशेष । (द्वा.२७) उवसम पुं [उपशम] इन्द्रिय निग्रह, क्रोधादि का अभाव, शान्तपरिणाम । कम्मेण विणा उदयं, जीवस्स ण विज्जदे उवसमं वा। (पंचा. ५६, ५८, स. ३८२) उवसमदमखमजुत्ता (बो.५१) उवसमण पुं न [उपशमन] औपशमिक भाव, आत्मिक प्रयल विशेष। ओदइयभावठाणा णो उवसमणे सहावठाणा वा। (निय.४१) उवहस सक [उप+हस्] हंसी करना, उपहास करना। (लिं.३) उवहाण न [उपधान] उपधान, आश्रय। (लिं.८) उवहि पुंस्त्री [उपधि] परिग्रह, कर्मपरिणाम। (प्रव.चा.७३) उवा पुं [उपाय] हेतु, साधन। जुत्ति त्ति उवासं त्ति या (निय.१४२) अंतोवाएण चयहि बहिरप्पा। (मो.४) उवादेय वि.[उपादेय] ग्राह्य, ग्रहण करने योग्य । हेयमुवादेयमप्पणो अप्पा। (निय.३८) सगदव्वमुवादेयं । (निय.५०) उवासेय वि [उपासेय] सेवन करने योग्य । (प्रव.चा.६३) उवे सक [उप+इ] प्राप्त करना। पडिए ण पुणोदयमुवेई। (स.१६८) उबह सक [उद्+वह] धारण करना, ऊपर उठाना। सम्मत्तमुव्व हंतो झाणरओ होइ जोई सो। (मो.५२) उब्वहंतो (व.कृ.) उन्चेग पुं [उद्वेग] व्याकुलता, शोक, अठारह दोषों में अंतिम दोष विम्हयणिद्दाजणुब्वेगो। (निय.६) For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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