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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ___70 कोहो, अण्णुवओगप्पगो हवदि चेदा। (स.११५) -गुणाधिग वि [गुणाधिक उपयोग के गुणों से अधिक। उवओगगुणाधिगो। (स.५७) -मय वि [मय] उपयोगमय। जीवो उवओगमयो। (निय.१०) -लक्खण पुं न [लक्षण] उपयोग के लक्षण, कारण। (स.२४) सव्वण्हु णाणदिट्ठो जीवो उवओगलक्खणो णिच्चं। (स.२४) -विसेसिद वि [विशेषित] उपयोग से निरूपित, जानने रूप परिणामों से कथित। जीवो त्ति हवदि चेदा, उवओगविसेसदो पहू कत्ता। (पंचा.२७) -सुप्पा पुं शुद्धात्मन्] उपयोग से विशुद्ध आत्मा। भावं उवओग-सुद्धप्पा। (स.१८३) आचार्य कुन्दकुन्द ने उपयोग का लक्षण इस प्रकार प्रतिपादित किया है। उवओगो गाणदंसणं भणिदो। (प्रव. जे.६३) उपयोग को ज्ञान एवं दर्शन के अतिरिक्त जीव आत्मा के परिणामों की अपेक्षा शुभ,अशुभ और शुद्ध रूप में भी प्रतिपादित किया गया है। उवओगो जदि हि सुहो, पुण्णं जीवस्स संचयं जादि।असुहो वा तध पावं, तेसिमभावे ण चयमत्थि। (प्रव. जे. ६४) जीवो य साणुकंपो उवओगो सो सुहो तस्स ।। (६५)विसयकसाओ गाढो,दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्ठगोट्ठिजुदो। उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो।। (६६) विशुद्ध आत्मा के उपयोग को णाणप्पगमप्पगं ज्ञानात्मस्वरूप कहा है। उवकुण सक[उप+कृग्] उपकार करना। (हे.कृगे:कुण:४/६५) उवकुणदि जो वि णिच्चं । (प्रव.चा.४९) For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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