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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 26 [कारण] मोक्ष हेतु, मोक्ष का निमित्त। (प्रव.जे.६) अपुणब्भाव पुं [अपुनर्भाव] मोक्ष प्राप्ति। (प्रव.चा. ५६) ण लहदि अपुणब्भावं। अपुधब्भूद वि [अपृथग्भूत] एक क्षेत्र अवगाही, प्रदेश भेद रहित। (पंचा. ५०,९६) अपुधब्भूदो य अजुदसिद्धो य। (पंचा.५०) अपुब वि [अपूर्व] अद्भुत, अद्वितीय। (भा.१३२) भावि अपुव् महासत्त। अपोह पुं [अपोह] युक्ति देना, तर्क प्रस्तुत करना, तर्क शक्ति द्वारा शंका निवारण | अपोहाविवरीयभासणं। (चा.३३) अप स अल्प] अल्प, थोड़ा। (सू. १८,१९) अप्पं बहुयं च हवइ लिंगस्स। -गाह पुं [ग्राह्य] अल्पग्रहण। (सू.२७) गाहेण अप्पगाहा। (सू.२७) -बहुय वि [बहुकअल्पबहुत्व। (सू. १८,१९) जइ लेइ अप्पबहुयं । (सू.१८) -लेवी वि [लेपी] अल्पलिप्त। (प्रव.चा.३१) -सार पुं न [सार अल्पसार। (भा.१३०) परसुरसुक्खाण अप्पसाराणं। (भा. १३०) अप्प पुं [आत्मन्] आत्मा, जीव, चेतन, निज। (स. २९,५३, निय.१७०, पंचा. १४०, मो. ५, भा.१३१) तुमं कुणहि अप्पहियं। (भा.१३१) -पयास पुं प्रयास] आत्मउद्यम, निज उद्यम, निज प्रयत्न। (निय.१६५) णाणं अप्पपयासं। (निय.१६५) -प्पसंसिय वि [प्रशंसित] आत्मप्रशंसित, आत्मश्लाघ्य । (निय.६२) अप्पप्पसंसियं वयणं । (निय.६२)-वस पुं विश]आत्मवश, आत्माधीन। (निय.१४६) अप्पवसो सो For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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