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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 295 आत्मा। (निय.४८, प्रव.शे.१०२, मो.६) अणिंदिओ केवलो विसुद्धप्पा। (मो.६) -भाव पुं [भाव] विशुद्धभाव, निर्मल परिणाम । (भा.१६०) विसुद्धभावेण सुयणाणं। (भा.९२) -मइ स्त्री [मति] विशुद्धमति, निर्मलबुद्धि। जुवईजणवेड्डिओ विसुद्धमई। (भा.५१) -सम्मत्त न [सम्यक्त्व] विशुद्ध सम्यक्त्व,सम्यग्दर्शन की निर्मलता। (चा.१५,द.३३) कहंति जीवा विसुद्धसम्मत्तं । (द.३३) विसेस सक [वि+शेषय] विशेषयुक्त करना, विशेषण से युक्त करना, व्यवच्छेद करना। (प्रव.चा.६१) विसेसिदव्वो त्ति उवदेसो। विसेसिदव्यो (वि.कृ.प्रव.चा.६१) विसेस पुं न [विशेष] पर्याय, धर्म, गुण, अतिशय, भिन्नता। (पंचा.५१, स.६२, प्रव.७७, निय.८४) सिद्धंतं जइ ण दीसइ विसेसो। (स.३२२) -अंतर न [अन्तर] विशेष अन्तर, विशेष भेद। (स.७१) णादं होदि विसेसंतरं। -द वि [ता] भिन्नता, विशेषता। विसेसदो दव्वजादीणं । (प्रव.३७) विसेसिद वि [विशेषित] विशेषण युक्त, अतिशय युक्त, गुणयुक्त। (प्रव.९२) धम्मो त्ति विसेसिदो समणो। (प्रव.९२) विसोहि स्त्री [विशोधि] विशुद्धि, निर्मलता, पवित्रता। (स.५४) -ट्ठाण न [स्थान] पवित्र स्थान, विशुद्धि स्थान। णेव विसोहिट्ठाणा। (स.५४) विस्स वि [विश्व] अनेक,लोक,छह द्रव्यों का समूह । (पंचा.४३) -रूव पुं न [रूप] अनेक रूप, अनेक प्रकार का। तम्हा दु For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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