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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 268 (पंचा.३,प्रव.६१,द्वा.२) सो चेव हवदि लोओ। (पंचा.३) -उत्तम वि [उत्तम] लोक में उत्तम। (ती.भ.७) -ओगाढ वि [अवगाढ] लोक में व्याप्त। (पंचा.८३) लोगोगाढं पुढें। (पंचा.८३) -सहाव लोकस्वभाव। लोगसहावं सुणंताणं। (पंचा.९५)2.लोग,मनुष्य, जन। (स.५८,१०६) लोगा भणंति ववहारी। (स.५८) लोगिग वि लौकिक] लोकसम्बन्धी, सांसारिक (प्रव.चा.५३,६८,६९) -जण पुं [जन] लौकिक मनुष्य। (प्रव.चा.५३,६८) लोच पुं लौच केशो का निकलना, उखाड़ना। (प्रव.चा.८) लोभ पुं [लोभ, लालच, तृष्णा। (पंचा.१३८) लोभो व चित्तमासेज्ज। लोय देखो लोअ। (पंचा.८७,स.९,प्रव.३३, निय.४८, भा.३६, मो.२७) समओ सव्वत्थ सुंदरो लोए। (स.३) -अग्ग न [अग्र] लोक का अग्रभाग। (निय.७२,१८२) जह लोयग्गे सिद्धा। (निय.४८) -अलोय पुं [अलोक] लोक और अलोक। (निय.१६६,भा.१४९) -आयास पुंन [आकाश] लोकाकाश। (निय. ३२,३६ ) -प्पदीवयर वि [प्रदीपकर] लोक को प्रकाशित करने वाले। (स.९,प्रव.३३) भणंति लोयप्पदीवयरा।-ववहारविरद वि व्यवहारविरत लोक के व्यवहार से रहित। लोयववहार विरदो अप्पा। (मो.२७) -विभाग पुं [विभाग] लोक का अंश। (निय.१७) लोयविभागेसुणादव्वा। लोयंतिय पूं लौकान्तिक] लौकान्तिक देव,देवों की एक जाति For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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