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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 256 [दुर्ग्रन्थि] मोह की दुष्ट गाँठ,मोह का कठिन बन्धन। (प्रव.जे.१०२) खवेदि सो मोहदुग्गंठी। (प्रव.जे.१०२) -पदेस पुं [प्रद्वेष] मोह एवं द्वेष । (प्रव.जे.५७) मोहपदोसेहिं कुणदि जीवाणं । -बहुल वि [बहुल] मोह की अधिकता,मोह से घिरा। (पंचा.११०)देति खलु मोहबहुलं । (पंचा.११०)-मयगारव पुं न [मदगौरव] मोह,मद और अहंकार। (भा.१५८)मोहमयगारवेहिं या(भा.१५८)-महातरु पुं [महातरु] मोहरूपी महावृक्ष। (भा.१५७) मोहमहातरुम्मि आरूढा। (भा.१५७) -मुक्क वि [मुक्त मोह से रहित। (बो.४४) -रअ पुंन [रजस्] मोहरूपी रज, मोहरूपी धूल। (प्रव.१५) -रहिअ वि [रहित] मोहरहित। (चा.१९)-संछण्ण वि [संछन्न] मोह से ढंका। (प्रव.७७, पंचा.६९) संसारमोहसंछण्णो। (प्रव.७७) मोहणिय न [मोहनीय] मोहनीय कर्म, कर्मों का एक भेद | (भा.१४८) मोहिम/मोहिद/मोहिय वि [मोहितमोहयुक्त, मोह करने वाला। (स.२३, भा.४०, मो.७८, शी.१३) य अ [च] हेतु सूचक अव्यय, और, तथा, एवं, जो, ऐसा, जिसतरह, पादपूर्ति अव्यय। (स.१३, प्रव.३, निय.२, ९, ३४, द.८,९, बो.४, मो.१) बुद्धी ववसाओ वि य । (स.२७१) तस्स य किं दूसणं होइ। (निय.१६६) For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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