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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 166 (बो.३६) णिहि वि [निधि] भण्डार,खजाना। तह णाणी णाणणिहिं। (निय.१५७) णिहिल वि निखिल] सम्पूर्ण, समस्त। (भा.१२०) णीर न [नीर जल, पानी। (भा.१९) । णीरय वि नीरजस्] रज से रहित, कर्मफल से रहित सिद्ध, शुद्ध मुक्त, एगो सिज्झदि णीरयो। (निय.१०१) णीराग वि [नीराग] राग रहित, वीतराग। (निय.४३,४४) णीरालंब वि [निरालम्ब] आलम्बन रहित। (स.२१४) णु अ [नु] किन्तु। (स.१२३) कहं णु परिणामयदि कोहो। णुय वि [नय] नमस्कृत, नमस्कार करने वाला। (भा.४५) णे सक [नी] जाना, प्राप्त होना। णे, (हे. कृ.स.२२१) णेमि (व.उ.ए.स.७३) णेअ/णेय वि [ज्ञेय] जानने योग्य। (पंचा.७८, प्रव.जे.३८, निय.४८) -अंतगद वि [अन्तगत जानने योग्य पदार्थों के अन्त को प्राप्त। (प्रव.जे.१०५) - भूद वि [भूत ज्ञेयभूत, जानने योग्य होते हुए। (प्रव.१५) णेय वि [अनेक] अनेक प्रकार, कई। (स.८४) करेदि णेयविहं। रइय/णेरयिय वि [नैरयिक नारकी, नरक सम्बन्धी, नरक में उत्पन्न। (पंचा.५५, स.२६८, प्रव.१२) णेव अ [नैव] निषेध सूचक अव्यय, नहीं। (स.५२, प्रव.२८) णेव य अणुभायठाणाणि । (स.५२) For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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