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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 3 अकारय वि [अ-कारक] अकारक, नहीं करने वाला, अकर्ता। (स. ३२०) अकिण्ण वि [अकीर्ण] नहीं खुदा हुआ, व्याप्त। (द्वा.५६) अकिंचण्ह वि [अकिञ्चन्य] आकिञ्चन्य, मुनिधर्म का एक भेद। (द्वा.७०) तव-चागमकिंचण्हं। अक्कंत वि [आक्रान्त छूटा हुआ, परास्त, अभिभूत, ग्रसित। (द्वा.३८) संसार दुहअक्कंतो। अक्किरिया स्त्री [अक्रिया] अक्रिया, अव्यापार, अप्रयल। (भा.१३६) अक्ख पुंन [अक्ष] इन्द्रिय, पाशा, आत्मा। (प्रव. २२,५६,५७, प्रव जे. १०६, निय.२३, मो. ५) -अतीद वि [अतीत] इन्द्रियरहित। (प्रव.२२) -विसय पुं [विषय] इन्द्रियविषय, इन्द्रियजन्य, इन्द्रियगोचर। (निय.२३) अक्खा (प्र. ब.) अक्खाणि (प्र.ब.) अक्खाणं (च ./ष. ब.) अक्खाणं ते अक्खा। (प्रव. ५६) अक्खय वि [अक्षय] नाशरहित, जिसका कभी नाश न हो, अविनाशी। (प्रव. जे. १०३, निय. १७६, द. ३४, चा. ४) अकज्ज वि [अकार्य] नहीं करने योग्य, व्यर्थ, उत्पन्न नहीं हुआ। (पंचा.८४, भा.५५,१११) अकद वि [अकृत] नहीं किया गया, नहीं बनाया गया, अरचित। (पंचा. ६६) अकदा परेहिं दिट्ठा। अकुब्व स [अकुर्व] नहीं करना, नहीं बनाना। (स. ९३, १०४' अकुव्वंतो (व.कृ.) For Private and Personal Use Only
SR No.020450
Book TitleKundakunda Shabda Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain
PublisherDigambar Jain Sahitya Sanskriti Sanskaran Samiti
Publication Year
Total Pages368
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size9 MB
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