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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra ૨૮ श्री कामघट कथानकम पुनरपि तद्दोषेणात्र लोक एव तैः क्लीवत्वं कुरोगित्वमिन्द्रियहीनत्वं च लभ्यते । तेषां नामापि न कोऽपि गृह्णाति, एवं ते दुःशीलिनो निंद्याः दौर्भाग्यशालिनश्च जायन्ते । अतएव हे वारांगने ! न कदाऽप्यहं त्वय्यनुरक्तो भविष्यामि । एवंविधं मन्त्रिवाक्यचातुर्यमाकर्ण्य तयाऽन्ते ज्ञातम् - मम कलाकौशलमस्य शीलभ्रष्टकरणे न प्रभवति । इति विमृश्य ततोऽपसृत्य च यथाऽऽगता तथैव सा स्वस्थानं त्वरितं परावर्तिष्ट । एवं परिवर्जितकुसंगस्य तस्य मन्त्रिणस्तस्मिन् सकलेऽपि नगरे शीलमहिम सुप्रसिद्धिर्जाता । यदुक्तं च www.kobatirth.org फिर भी उस परस्त्री के साथ व्यभिचार के पाप से इसी लोक में ही वे व्यभिचारी नपुंसक हो जाते हैं, खराब रोगों से ग्रसित होते हैं और उनकी इन्द्रियां भी नष्ट-भ्रष्ट ( निकम्मी ) हो जाती हैं । व्यभिचारियों का नाम भी कोई नहीं लेता, इसतरह वे कुकर्मी, निंदाके योग्य और बदनसीब ( अभागे ) हो जाते हैं । इसलिए, हे बाजार की जोरू ! मैं कभी भी तुम में अनुराग वाला नहीं हो सकूंगा । इसतरह मंत्री की वाक् चतुरता को सुनकर उस वेश्याने अन्त में समझा कि मेरी कलाकुशलता इसके शील (ब्रह्मचर्य ) भ्रष्ट करने में समर्थ नहीं हो सकती है। ऐसा विचार कर और वहां से निकल कर जैसे आई थी उसी तरह वह अपने घर को शीघ्र लौट गई। इसतरह बुरे संग को छोड़ देने वाले उस मंत्री के उस सारे नगर में शील (सदाचार-ब्रह्मचर्य ) की महिमा की प्रसिद्धि हो गई । कहा है सीलं सीलं उत्तम - वित्तं, दोहग्ग-हरं, Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सीलं जीवाण मंगलं सीलं परमं । कुलभवणं ॥ २५ ॥ सुक्खाण शीलं उत्तम - वित्तं शीलं जीवानां परमं मंगलम् । शीलं दुर्गतिहरं शीलं सुखानां कुल-भवनम् ॥ २५ ॥ शील उत्तम धन है, शील प्राणियों का परम मंगल है, शील दुःख नाशक है, शील सुखों का खजाना है ।। २५ ।। For Private And Personal Use Only सुविसुद्ध - सील-जुत्तो, , पावइ कित्तिं जसं च इहलोए । सव्व जण वल्लहो सुह-गइ-भागी अ च्चिय, परलोए ॥ २६ ॥
SR No.020435
Book TitleKamghat Kathanakam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGangadhar Mishr
PublisherNagari Sahitya Sangh
Publication Year
Total Pages134
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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