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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra कल्पसूत्र ॥ ६३ ॥ 適 瀲 www.kobatrth.org जे केइ उवसग्गा उप्पज्जंति, तंजहा - दिव्वा वा माणुस्सा वा, तिरिक्ख - जोणिआ वा, अणुलोमा वा पडिलोमा वा, ते उप्पन्ने सम्मं सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेइ ।। सू. १५७ ।। तए णं से पासे भगवं अणगारे जाए, इरियासमिए जाव अप्पाणं भावेमाणस्स तेसीइं राइंदियाइं विइक्कंताइं, चउरासीइमस्स राइदियस्स अंतरा - वट्टमाणस्स जे से गिम्हाणं पढमे मासे पढमे पक्खे चित्त- बहुले, तस्स णं चित्त- बहुलस्स चउत्थी पक्खे णं पुव्वण्ह - काल - समयंसि धायइ - पायवस्स अहे छठ्ठणं भत्तेणं अपाणएणं विसाहाहिं नक्खत्तेणं जोग-मुवागएणं झाणंतरिआए वट्टमाणस्स अनंते अणुत्तरे जाव | केवल - वर - नाण - दंसणे समुप्पन्ने जाव जाणमाणे पासमाणे विहरइ ||सू. १५८ ॥ पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स अठ्ठ गणा, अठ्ठ गणहरा हुत्था, तंजहाः - सुभे य १ अज्जघोसे य २, वसिठ्ठे ३ बंभयारि य ४ । सोमे ५ सिरिहरे ६ चेव, वीरभद्दे ७ जसेवि य ८ ।। सू. १५९ ।। पासस्स णं अरहओ पुरिसादाणीयस्स | अज्जदिण्ण- पामुक्खाओ सोलस समण - साहस्सीओ उक्कोसिआ समण - संपया हुत्था ॥सू. १६० । (चित्र नं. १८ - १९ - २० - २१) For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मूळ चित्र नं. १८ - १९ २०-२१ ॥ ६३ ॥
SR No.020430
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendrasuri
PublisherHarshpushpamrut Jain Granthmala
Publication Year
Total Pages121
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size9 MB
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