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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद 113711 www.kobatirth.org P रसवाली, संपूर्ण उच्चारवाली, मितपद-वर्णादिवाली, अल्प शब्द और अधिक अर्थवाली वाणी से जगाती है। सिद्धार्थ 'राजा की आज्ञा पाकर मणि रत्न जड़ित सुवर्ण के सिंहासन पर बैठ गई । मार्ग का परिश्रम दूर हो जाने से अर्थात् सर्वथा स्वस्थ चित्त होने पर त्रिशला क्षत्रियाणी पूर्वोक्त मंजुल मधुर वचनों से बोली हे स्वामिन् ! आज मैंने अर्ध . जागृत अवस्था में गजादि चौदह महास्वप्न देखें हैं । हे स्वामिन् ! मुझे उन मनोहर मंगलकारी स्वप्नों का क्या शुभ फल होगा ? त्रिशला क्षत्रियाणी के मुख से उन महाप्रशस्त स्वप्नों को सुन कर और सम्यक् तथा हृदय में धारण कर सिद्धार्थ राजा हर्षित हो, सन्तुष्ट हो, आनन्दपूर्ण हृदय हो, मेघधारा से सिंचित कदम्ब पुष्प के समान विकसित का रोमराजीवाला होकर अपने स्वाभाविक मतिपूर्वक बुद्धि विज्ञान से स्वप्नों के अर्थ को निश्चित करता है 054050 40: 2 . करने पर उत्तम प्रकार की वाणीद्वारा राजा सिद्धार्थ त्रिशला क्षत्रियाणी से कहता है- हे देवानुप्रिये ! तुमने बड़े उदार, कल्याणकारी, मंगल, धन, लक्ष्मीयुक्त, दीर्घायु, आरोग्य, तुष्टि, शिव और यश प्राप्त करानेवाले स्वप्न देखे हैं । हे देवानुप्रिये ! इन महामंगलकारी स्वप्नों के दर्शन से अर्थ का लाभ होगा, भोग का सुख का पुत्र का, राज्य का, यश का और धन्य धान्य का लाभ होगा, हे देवानुप्रिये ! आज से नव मास और साढ़े आठ दिन रात व्यतीत होने पर तुम एक उत्तम लक्षणवाले पुत्र को जन्म दोगी । वह पुत्र हमारे कुल में ध्वज समान, दीपक समान मंगलकारी, पर्वत के समान अचल धैर्यवान्, कुलाधार, मुकुट मणी तुल्य, लोक में तिलक समान कुलकीर्तिकारक, कुल को प्रकाशित करने में सूर्य समान, कुल की वृद्धि करने वाला, और कुल का यश For Private and Personal Use Only . 400 500 40 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir तीसरा व्याख्यान
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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