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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 40 500 40 500 40 500 40 www.kobatirth.org और क्षुर मुंडन स्वीकार किया। उसने निश्चय किया कि साधु सर्व प्राणातिपात की विरति रखते हैं परन्तु मैं स्थूल प्राणातिपात की विरति रक्खूंगा । साधु शील सुगंधित हैं, में वैसा न होने से चंदनादिका विलेपन रक्खूंगा । मुनिराज तो मोह रहित हैं, पर मैं वैसा न होने से एक छत्री भी रक्खूंगा। मुनि नंगे पैर रहते हैं, परन्तु मैं पैरों में जूते भी रक्खूंगा। मुनि कषाय रहित हैं, मैं वैसा नहीं इस लिए मैं अपने पास काषाय वस्त्र रक्खूंगा। मुनि स्नान से रहित हैं, परन्तु मैं तो परिमित जल से स्नान भी किया करूंगा। इस प्रकार अपनी बुद्धि से मरीचिने परिव्राजक ' का वेष कल्पित कर लिया । उसे नया वेषधारी देख कर अनेक मनुष्य उसके पास जाकर उससे धर्म पूछने लगे । मरीचि लोगों के समक्ष साधु धर्म की व्याख्या करता है । उपदेशशक्ति बलवती होने के कारण अनेक राजपुत्रों को प्रतिबोधित कर भगवान को शिष्यतया प्रदान करता है और प्रभु आदिनाथ स्वामी के साथ ही विचरता है । एक समय प्रभु अयोध्या में समवसरे, तब वंदन करने के लिए आये हुए भरत ने से प्रभु पूछा कि स्वामिन्! इस सभा में कोई ऐसा मनुष्य है जो भरत क्षेत्र में इस चौबीसी में तीर्थकर होने वाला हो ? भगवान बोले- हे भरत ! तेरा पुत्र मरीचि इस वर्तमान अवसर्पिणी में वीर नामक चौबीसवां तीर्थकर, विदेह क्षेत्र की मूका राजधानी में प्रियंमित्र नामा चक्रवर्ती और इस भरत क्षेत्र में प्रथम वासुदेव होगा । यह सुन कर हर्षित हुआ भरत मरीचि के पास जाकर उसे तीन प्रदक्षिणा और नमस्कार कर बोला हे मरीचे! संसार में जितने श्रेष्ठ 1 गेरू से रंगा हुआ वस्त्र For Private and Personal Use Only 40 500 4054050410 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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