SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 410501405014050040 www.kobatirth.org अपनी चतुराई बतलाते हुए उसने एक बाण के मूल भाग में दूसरा बाण मार कर, उसके मूल भाग में फिर तीसरा | बाण मार कर, इस तरह कितनेक बाणों से वहां ही बैठे हुए आमों का गुच्छा तोड़कर कोशा को अर्पण किया और अपनी इस विद्या पर गर्वित होने लगा । परन्तु कोशा को इस पर कोई आश्चर्य नहीं हुआ । उसने सरसों का एक ढ़ेर करवाया और उस पर सुईयां खडी कर उन पर पुष्प रख कर उस पर नाच करते हुए गाना शुरू किया । गाती हुई कहने लगी • “न दुक्कर अंबयलंबितोड़णं, न दुक्करं सरिसवणच्चि याए । तं दुक्करं जंच महाणुभावं जं सो मुणी पमयवणमि वुच्छो ।।1।। अर्थात्- आम की लुंब को तोडना यह कोई दुष्कर नहीं है, एवं सरसव पर नाचना भी कुछ दुष्कर नहीं है, परन्तु वहीं दुष्कर है जो उस महानुभाव मुनि ने प्रमदा (स्त्री) रूप वन में मूर्छित न हो कर बतलाया है ।" यहां पर कवि कहता है- पर्वतों पर गुफाओं में और निर्जन वन में वस कर हजारों मुनिओं ने इंद्रियों को वश किया है परन्तु अति मनोहर महल में मनोनुकूल सुन्दर स्त्री के पास रहकर इंद्रियों को वश करनेवाला शकडालनंदन ही है। जिसने अग्नि में प्रवेश करने पर भी अपने आप को जलने न दिया, तलवार की धार पर चल कर भी इजा न पाई, भयंकर सर्प के बिल पर रहकर भी जो डसा न गया तथा कालिमा की कोठड़ी में रहकर भी जिसने दाग लगने न दिया । वेश्या रागवती थी, सदैव उनकी आज्ञा में चलने वाली थी, षट् रसयुक्त भोजन मिलता था, सुन्दर चित्रशाला थी, मनोहर शरीर था, नवीन For Private and Personal Use Only 2051 2055 20 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy