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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद ||117 || 4405 05 0 www.kobatirth.org नाभिकुलकरने कहा - "तुम्हारा राजा ऋषभ हो" फिर वे युगलिये हर्षित हो अभिषेक के लिए पानी लेने तालाब पर गये । उस वक्त सिंहासन कंपित होने से इंद्र ने अपना आचार जानकर वहां आकर मुकुट कुंडल आभरणादि की शोभा करनेपूर्वक प्रभु का राज्याभिषेक किया। उस वक्त कमल के पत्तों में पानी लेकर आए हुवे युगलिये प्रभु को अलंकृत देख आश्चर्य में पड़ गये। थोड़ी देर विचार कर के उन्होंने वह पानी प्रभु के चरणों में डाल दिया । यह देख तुष्टमान हो इंद्र विचारने लगा कि-'अहो ! ये लोग कैसे विनयवान् हैं !' यह विचार कर इंद्र ने वैश्रमण को आज्ञा दी "यहां पर बारह योजन विस्तारवाली और नवयोजन चौड़ी विनीता नाम की नगरी वसाओ ।" इस तरह आज्ञा सुन कर वैश्रमणने रत्न और सुवर्णमय घरों की पंक्तिवाली और चारों और किले से सुशोभित नगरी बनाई । फिर प्रभुने अपने राज्य में हाथी, घोडे एवं गाय आदि का संग्रह करने पूर्वक उग्र, भोग राजन्य और क्षत्रियरूप चार कुलों की स्थापना की। उसमें उग्रदंड करने के लिये उग्र कुलवाले आरक्षक के स्थान पर समझना चाहिये, भोग के योग्य होने से भोगकुलवाले वृद्ध-गुरूजन समझना चाहिये, समान वयवाले होने से राजन्य . कुलवाले मित्रस्थानीय जानना चाहिये और शेष प्रधानादि क्षत्रियकुलवाले समझना चाहिये । गृहस्थ कर्म की शिक्षा . अब काल की उत्तरोत्तर हानि होने से ऋषभकुलकर के समय में कल्पवृक्ष के फल न मिल सकने के कारण For Private and Personal Use Only 150155010550 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सातवां व्याख्यान 117
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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