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लेकर उसके साथ का अपना नव भव का सम्बन्ध कह सुनाया, जो इस प्रकार है:
पहले भव में धनकुमार नामा राजपुत्र था, तब वह धनवती नामक मेरी पत्नी थी । दूसरे भवमें हम दोनों पहले देवलोक में देव देवीतया पैदा हुए थे। तीसरे भवमें मैं चित्रगति नामक विद्याधर था तब वह रत्नवी नामा मेरी पत्नी थी । फिर चौथे भवमें हम दोनों देवलोक में देव हुए थे । पांचवे भवमें में अपराजित नामक राजा था और यह प्रियतमा नामा मेरी रानी थी । छठे भव में हम दोनों ग्यारवें देवलोक में देव हुए थे । सातवें भवमें मैं शंख नामक राजा था और यह यशोमती नामक मेरी रानी थी । आठवें भवमें हम दोनों अपराजित देवलोक में देवतया पैदा हुए थे और नववें भव में नेमिनाथ हूं और यह राजीमती है ।
तत्पश्चात् प्रभु वहां से अन्यत्र विहार कर गये । जब क्रम से फिर रैवताचल पर आकर समवसरे तब अनेक राजकन्याओं सहित राजीमती और प्रभु के भाई रथनेमिने प्रभु के पास दीक्षा ली । एक दिन राजीमती प्रभु को वन्दन करने जा रही थी, परन्तु मार्ग में वर्षा होने से वह एक गिरिगुफा में दाखल हो गई । उसी गुफा में पहले
से ही रहे हुए रथनेमि को न जानकर उसने भीगे हुए वस्त्र अपने शरीर पर से उतार कर सुकाने के लिए वहां - 9 फैला दिये।
देवांगनाओं के रूप को भी फीका करनेवाली साक्षात् कामदेव की रमणी के समान राजीमती को वस्त्र रहित सो देखकर मानो भाई के वैर से कामदेव के बाणों से पीडित हुआ हुवा रथनेमि कुललज्जा छोड़ कर धैर्य पकड़ राजीमती
को कहने लगा-हे सुन्दरी ! सर्वांग भोगसंयोग के योग्य और सौभाग्य के निधानरूप इस तेरे कोमल शरीर
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