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श्री कल्पसूत्र
हिन्दी
अनुवाद
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प्रतीत होता है। तथा अन्यत्र कहा है कि-'द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये परमपरं च तत्र परं सत्य ज्ञानं अनन्तरं ब्रह्मेति " न इत्यादि पदों से मोक्ष की सत्ता प्रतीत होती है । बस यही तेरे मन में शंका है । किन्तु यह ठीक नहीं है । क्यों कि "जरापर्यं वा यदग्निहोत्रं" इस पद में 'व' शब्द 'अपि' के अर्थ में है और वह भिन्न क्रमवाला है । एवं "जरामर्यं यावत् अग्निहोत्रं अपि कुर्यात् " अर्थात् स्वर्ग का इच्छुक हो उसे जीवन पर्यन्त अग्निहोत्र करना चाहिये और जो निर्वाण का अर्थी हो उसे अग्निहोत्र छोड़कर निर्वाणसाधक अनुष्ठान करना चाहिये, परन्तु नियम से 'अग्निहोत्र' ही करना ऐसा अर्थ नहीं है । इससे निर्वाण के अनुष्ठान का भी काल बतलाया है । यह ग्यारहवें गणधर हुए ।
इस प्रकार चार हजार चार सौ ब्राह्मणों ने प्रभु के पास दीक्षा ग्रहण की। उनमें से मुख्य ग्यारहोंने त्रिपदी ग्रहणपूर्वक द्वादशांगी की रचना की और उन्हें प्रभु ने गणधर पद से विभूषित किया । द्वादशांगी की रचना के बाद प्रभु ने उन्हें उसकी अनुज्ञा करी । इंद्र वज्रमय दिव्य स्थल दिव्य चूर्ण से भरकर प्रभु के समीप खड़ा हो जाता है, प्रभु रत्नमय सिंहासन से उठकर उस चूर्ण की संपूर्ण मुष्टि भरते हैं, गौतम आदि ग्यारह ही गणधर अनुक्रम से जरा गरदन खड़े रहते हैं । उस वक्त देव भी वाद्य तथा गीतादि वन्द कर ध्यानपूर्वक सुनने लगे । फिर प्रभु बोले- "गौतम को द्रव्यगुण तथा पर्याय से तीर्थ की आज्ञा देता हूं" यों कहकर प्रभु ने मस्तक पर चूर्ण डाला । फिर देवों ने भी उन पर चूर्ण, पुष्प और गन्ध की वृष्टि की। सुधर्मस्वामी को धुरीपद
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छुट्टा व्याख्यान