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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 40 500 40 500 405001 筑 www.kobatirth.org नित्यप्रति भोजन भी प्रभु ने नहीं किया था । अब केवलज्ञान का वर्णन करते है । भगवान को केवलज्ञान की प्राप्ति जब भगवान की दीक्षा का तेरहवां वर्ष चल रहा था। तब ग्रीष्मकाल के दूसरे महिने में चौथे पक्ष में वैशाख शुक्ल पक्ष की दशमी के दिन पूर्व दिशा की तरफ छाया जाने पर प्रमाण को प्राप्त हुई, पिछली पोरसी के समय, सुव्रत नामा दिन में, विजय नामा मुहूर्त में, जृंभिक नामा ग्राम नगर के बाहर, ऋजुवालुका नामा नदी के किनारे, व्यावृत्त नामक एक पुराणे व्यन्तर के मंदिर के बहुत दूर भी नहीं और अति नजदीक भी नहीं, श्यामक नामा कौटुम्बिक के खेत में, साल नामा वृक्ष के नीचे, जैसे गाय दूहुने बैठते हैं उस तरह के उत्कटिक आसन में बैठकर आतापना लेते हुए, जलरहित छट्ट की तपस्या करते हुए, तथा चंद्रमा के साथ उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र का योग आ जाने पर ध्यानान्तर में वर्तमान अर्थात् शुक्लध्यान के जो चार भेद हैं- प्रथम पृथक्त्ववितर्कवाला सविचार, दूसरा एकत्ववितर्कवाला अविचार, तीसरा सूक्ष्मक्रिय अप्रतिपाति तथा चौथा उच्छिन्नक्रिय अप्रतिपाति, इनमें से प्रथम दो भेदोंवाले ध्यान को ध्याते हुए प्रभु को अनन्त वस्तु विषयक अनुपम, आवरण रहित संपूर्ण तथा सर्व अवयवों सहित केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न हुए । 3 इस प्रकार केवलज्ञान उत्पन्न होने पर श्रमण भगवान श्री महावीर प्रभु अर्हन् हुए अर्थात् अशोकवृक्षादि प्रातिहार्य से पूजने योग्य हुए । राग द्वेष को जीतनेवाले जिन हुए । केवली, सर्वज्ञ और सर्वदर्शी हुए । देव, 40 500 40 500 400 400 For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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