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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद 117311 050140564050040 www.kobatirth.org अपने पति से लड़ी हुई थी। इस बात से अत्यन्त लज्जित हो वह नैमित्तिक एकान्त में प्रभु के पास आकर बोला- प्रभो ! आप तो विश्वपूज्य हो और सर्वत्र पूजा पाओगे परन्तु मेरी आजीविका तो यही ही है । प्रभु उसकी अप्रीति जान वहां से विहार कर गये । चंडकौसिक का उपसर्ग वहां से श्वेताम्ब नगरी की तरफ जाते हुए लोगों के निषेध करने पर भी कनकखल नामक तापस के आश्रम में प्रभु चंडकौशिक को प्रतिबोध करने के लिए पधारें । वह चंडकौशिक पूर्वभव में महातपस्वी साधु था । पारने के दिन गोचरी जाते हुए मेंडकी की विराधना हो गई थी, उसका प्रायश्चित पूर्वक प्रतिक्रमण करने के लिए ईर्यापथिकी प्रतिक्रमण के समय, गोचरी प्रतिक्रमण के वक्त संध्या प्रतिक्रमण के समय एवं तीन दफा किसी छोटे शिष्य ने उस साधु को याद करा देने से वह साधु क्रोधित हो वह उस छोटे शिष्य को मारने के लिए दौड़ा। परन्तु बीच में एक स्तंभ से टकरा कर मरके ज्योतिष देवतया उत्पन्न हुआ। वहां से चवकर उस आश्रम मे पांच सौ तापसों का चंडकौसिक नामा महन्त बना । वहां पर भी आश्रम के फलों को तोड़ते हुए राजकुमारदिकों को देख गुस्से होकर उन्हें मारने के लिए हाथ में कुल्हाड़ी लेकर पीछे दौड़ा, परन्तु रास्ते के एक कुए में गिर गया गिर जाने से क्रोध युक्त मरकर उसी आश्रम में पूर्वनामवाला दृष्टिविष सर्प बना । वह सर्प प्रभु को ध्यानस्थ अपने बिल पर खड़ा देख क्रोधायमान हो सूर्य की ओर देख देखकर प्रभु For Private and Personal Use Only 0000 enfen Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir छट्टा व्याख्यान
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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