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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्री कल्पसूत्र हिन्दी अनुवाद 116711 540540500 www.kobatirth.org तुमारी स्तुति की है । हे पुत्र ! इस संयम मार्ग में शीघ्र चलना, गुरू का आलंबन लेना तलवार की धारा के समान महाव्रतों का पालन करना, श्रमण धर्म में प्रमाद न करना इत्यादि आशीर्वाद देती है । फिर प्रभु को वन्दन कर वह एक तरफ हट जाती है । तब प्रभु ने एक मुष्टि से दाढ़ी मूछ के और चार मुट्ठी से मस्तक के केशों का स्वयं लोच किया । फिर पानी रहित छट्ट की तपस्या कर के उत्तरा फाल्गुनी नक्षत्र के साथ चंद्रमा का योग पर, इंद्रद्वारा बांये कंधे पर एक देवदूष्य को धारण कर अकेले ही रागद्वेष की सहाय बिना ही, अद्वितीय अर्थात् जैसे ऋषभदेव प्रभु ने चार हजार राजाओं सहित, मल्लिनाथ और पार्श्वनाथजीने तीन तीन साथ, वासुपूज्यजी ने छहसौ के साथ तथा शेष तीर्थकरों ने जैसे एक एक हजार के साथ दीक्षा ली थी त्यों वीर प्रभु के साथ कोई भी न था । इसलिए प्रभु अद्वितीय थे। द्रव्य से केशालुंचन कर के मुंडित हुए भाव से क्रोधादि को दूर कर के मुण्डित हुए, घर से निकल कर आगारीपन को त्याग कर अनगारीपन साधुपन को प्राप्त हुए । दीक्षा की विधि निम्न प्रकार है-पंच मुट्ठी लोच कर जब प्रभु सामायिक उचरने का विचार करते हैं तब इंद्र वाजे आदि बन्द करा देता है । प्रभु को "नमो सिद्धाणं," कह कर "करेमि सामाइयं सव्वं सावज्जं जोगं पच्चक्खामि इत्यादि पाठ उच्चारण करते हैं, परन्तु भन्ते पाठ नहीं बोलते क्योंकि उनका आचार ही ऐसा है । इस प्रकार चारित्र ग्रहण करते ही प्रभु को चौथा मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न हुआ । अब इंद्रादि देव प्रभु को वन्दन कर नन्दीश्वर द्वीप की यात्रा कर के अपने स्थान पर चले गये। For Private and Personal Use Only 4510500100 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पांचवा व्याख्यान 67
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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