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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra 2005 www.kobatirth.org पानी की ग्रहण किया। कभी सचित्त पानी तक भी नहीं पिया और नहीं कभी सचित्त जल से स्नान किया एवं उस दिन से जीवन पर्यन्त ब्रह्मचर्य पालन किया । परन्तु दीक्षोत्सव में तो प्रभु ने सचित्त जलसे ही स्नान किया. क्योंकि प्रकार आचार है । अब प्रभु को वैराग्यवान् देख कर चौदह स्वप्नों से सूचित चक्रवर्ती पन की बुद्धि से सेवा करते श्रेणिक और चण्डप्रद्योत आदि राजकुमार अपने-अपने स्थान पर चले गये । इधर एक तरफ प्रभु की प्रतिज्ञा पूर्ण होती है और दूसरी और लोकान्तिक देव आकर प्रभु को बोध करते हैं। लोकान्तिक संसार के अन्त में रहे हुए अर्थात् एक भवावतारी देव, क्यों कि यों तो वे ब्रह्मलोक नामक पांचवें हैं। ये देव भी नव प्रकार के होते हैं। उनके नाम सारस्वत, आदित्य, वहि, वरूण, गर्दतोय, तुषित, अव्याबाध, अग्नि, और अरिष्ट हैं । प्रभु यद्यपि स्वयंबुद्ध थे तथापि उन देवों का यह आचार ही होता है, वे जीतकल्प कहलाते हैं । वे देव आकर प्रभु को इष्ट वाणी से मनोहर गुणोवाली वाणी से निरन्तर अभिनन्दित करते हुए, स्तुति करते हुए यों कहने लगेहे जयवन्त प्रभो! हे भद्रकारी प्रभो! हे कल्याणवान् प्रभो आपकी जय हो। हे भगवन् ! लोक के नाथ ! आप प्रतिबोध को प्राप्त हो । हे उत्तम क्षत्रियवर ! सकल जगत के प्राणियों को हितकारी ऐसे धर्मतीर्थ की प्रवृत्ति करो। वह तीर्थ सकल लोक में समस्त जीवों को सुखकारी और मोक्ष के देनेवाला होगा । यों कहकर वे जयजय शब्द बोलने लगे । श्रमण भगवन्त श्री महावीर प्रभु को तो मनुष्य के उचित प्रथम से ही अनुपम, उपयोगवाला, तथा For Private and Personal Use Only 440 500 41050540 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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