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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsur Gyanmandir में उपस्थापना-बड़ी दीक्षा से लेकर दीक्षा-पर्याय गिना जाता है और बाईस तीर्थकरों के साधुओं में निरतिचार चारित्र होने से प्रथम दीक्षा के दिन से ही दीक्षापर्याय गिना जाता है । अब पिता और पुत्र , माता और पुत्री, राजा तथा मंत्री, सेठ और मुनीम आदि यदि साथ ही दीक्षा लेवें तो उन्हें गुरु लघुत्वका बर्ताव कैसा करना चाहिये सो कहते हैं :- यदि पिता आदि गुरू जनों और पुत्रादि लघु जनों ने साथ ही दशवैकालिक सूत्र का चतुर्थ अध्ययन तक पठन और योगोद्वहन कर लिया हो तो उन्हें अनुक्रम से ही स्थापित करना उचित है । यदि उसमें कुछ थोडा अन्तर हो, तो भी पुत्रादि को विलंब कराकर पितादि को ही बड़ा रखना योग्य है । ऐसा न किया जाय तो पिता आदि को छोटे होने के कारण पुत्रादि पर 5 अप्रीति होने की सम्भावना है । यदि पुत्रादि बुद्धिमान हों और पितादि स्थूल बुद्धि हों और उन दोनों में अधिक अन्तर हो: तो उन्हें इस प्रकार समझना चाहिये- "हे महानुभाव ! तुम्हारा पुत्र बुद्धिमान होते हुए भी दूसरे बहुत से साधुओं से छोटा हो जायगा । यदि आपका पुत्र बडा गिना जाय तो इसमें आप का ही गौरव है'' इस प्रकार समझाने पर यदि वह समझ जाय और अनुज्ञा देवे तो पुत्रादि को बड़ा स्थापन करना चाहिए । यदि न स्वीकार करे तो जैसे हैं वैसे ही क्रम से स्थापन न करना संगत है । यह सातमा ज्येष्ठ आचार है। 00:0930930 8 प्रतिक्रमण कल्पअतिचार लगे या न लगे तथापि श्री ऋषभदेव और श्री वीर प्रभु के मुनियों को दोनों समय अवश्यमेव For Private and Personal Use Only
SR No.020429
Book TitleKalpasutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDipak Jyoti Jain Sangh
PublisherDipak Jyoti Jain Sangh
Publication Year2002
Total Pages328
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Paryushan, & agam_kalpsutra
File Size18 MB
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