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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www. kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir मेघदूतम् 699 या वः काले वहति सलिलोद्गारमुच्चैर्विमाना मुक्ताजाल ग्रथितमलकं कामिनीवाभ्रवृन्दम्। पू० मे० 67 ऊँचे-ऊँचे भवनों वाली अलका पर वर्षा के दिनों में बरसते हुए बादल ऐसे छाए रहते हैं, जैसे कामिनियों के सिर पर मोती गुंथे हुए जूड़े। मुक्ताजालैः स्तनपरिसरच्छिन्न सूत्रैः च हारैः। उ० मे० 11 स्तनों को घेरने वाले हीरों से टूटे हुए मोती भी इधर-उधर बिखर जाते हैं। मुक्ता जालं चिरपरिचितं त्याजितो दैवगत्या। उ० मे० 38 दुर्भाग्यवश उस पर वह मोतियों की करधनी भी नहीं पड़ी मिलेगी जिसे वह बहुत दिनों से पहनती चली आ रही थी। मुक्तास्थूलास्तरुकिसलयेष्वभुलेशाः पतन्ति। उ० मे० 49 अपने मोती के समान बड़े-बड़े आँसू वृक्षों के कोमल पत्तों पर ढुलकाया करते हैं तरु 1. तरु - [तृ + उन्] वृक्ष। स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेषु। पू० मे० 1 रामगिरि के उन आश्रमों में डेरा डाला, जहाँ घनी छाया वाले बहुत से वृक्ष जहाँ-तहाँ लहलहा रहे थे। पाण्डुच्छाया तटरुहतरु भ्रंशिभिर्जीर्ण पर्णैः । पू० मे० 31 तीर के वृक्षों के पीले पत्ते झड़-झड़ कर गिरने से उसका रंग भी पीला पड़ गया होगा। पश्चादुच्चैर्भुज तरुवनं मण्डलेनाभिलीनः । पू० मे० 40 उस समय तुम साँझ की ललाई लेकर उन वृक्षों पर छा जाना जो उनके ऊँचे उठे हुए बाँह के समान खड़े होंगे। मुक्तस्थूलास्तरु किसलयेष्वभुलेशा: पतन्ति। उ० मे० 49 अपने मोती के समान बड़े-बड़े आँसू वृक्षों के कोमल पत्तों पर ढुलकाया करते For Private And Personal Use Only
SR No.020427
Book TitleKalidas Paryay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTribhuvannath Shukl
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2008
Total Pages441
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size15 MB
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