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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir 608 कालिदास पर्याय कोश गुरु 1. गुरु:- [पु०] [गृ+कु ; उत्वम्] पिता। गुरुः प्रगल्भेऽपि वयस्यतोऽस्यास्तस्थौ निवृत्तान्यवराभिलाषः। 1/51 यद्यपि पार्वती जी सयानी होती चली जा रही थीं, पर नारद जी की बात से हिमालय इतने निश्चिन्त हो गए कि उन्होंने दूसरा वर खोजने की चिन्ता ही छोड़ दी। अथानुरूषाभिनिवेशतोषिणा कृताभ्यनुज्ञा गुरुणा गरीयसा। 5/7 जब हिमालय ने समझ लिया कि पार्वतीजी अपनी सच्ची टेक से डिगेंगी नहीं, तब उन्होंने पार्वतीजी को तप करने की आज्ञा दे दी। तदा सहस्माभिरनुज्ञया गुरोरियं प्रपन्ना तपसे तपोवनम्। 5/5 तो ये अपने पिता की आज्ञा लेकर हम लोगों के साथ तप करने के लिए यहाँ तपोवन में चली आई। 2.पिता/पितृ :-[पुं०] [पाति रक्षति-पा+तृच्] पिता। त्वं पितृणामपि पिता देवनामपि देवता। 2/14 आप पितरों के भी पिता, देवताओं के भी देवता। शैलात्मजापि पितुरुच्छिश्सोऽभिलाषं व्यर्थं समर्थ्य ललितं वपुरात्मश्च। 3/75 आज मेरे ऊँचे सिर वाले पिता का मनोरथ और मेरी सुन्दरता दोनों अकारथ हो गईं। कदाचिदसन्न सखी मुखेन सा मनोरथज्ञं पितरं मनस्विनी। 5/6 हिमालय तो पार्वती जी के मन की बात जानते ही थे, इसी बीच एक दिन पार्वती जी ने अपनी प्यारी सखी से कहलाकर, अपने पिताजी से पुछवाया। अलभ्य शोकाभिभवेयमाकृतिर्विमानना सुभृकुतः पितुर्गुहे। 5/ हे सुन्दर भौंहों वाली ! आपका रूप ही ऐसा है न तो आप पर कोई क्रोध ही कर सकता है, न आपका निरादर कर सकता, क्योंकि पिता के घर में आपका निरादर करने वाला कोई है नहीं। तदा प्रभृत्युन्मदना पितुर्गहे ललाटिका चन्दन धूसरालका। 5/55 तभी से ये बेचारी अपने पिता के घर इतनी प्रेम की पीड़ा से व्याकुल हुई पड़ी रहती थीं, कि माथे पर पुते हुए चन्दन से बाल भर जाने पर भी। For Private And Personal Use Only
SR No.020427
Book TitleKalidas Paryay Kosh Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTribhuvannath Shukl
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2008
Total Pages441
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size15 MB
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