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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रघुवंश कृष्यां दहन्नपि खलु क्षितिमिन्धनेद्धो बीज प्ररोहजननी ज्वलनः करोति। 9/80 जंगल की लकड़ी की आग चाहे एक बार पृथ्वी को भले ही जला दे, किन्तु वह पृथ्वी को इतनी उपजाऊ बना देती है कि आगे उसमें बड़ी अच्छी उपज होती है। अन्तर्निविष्टपदमात्मविनाश हेतुंशापंदधज्ज्वलनमौर्वमिवाम्बुराशिः। 9/82 जैसे समुद्र के हृदय में बड़वानल जला करता है, वैसे ही अपने पाप से अधीर हृदय में मुनि का शाप लिए हुए वे घर लौटे। 7. धूमकेतु :-[धू+म+केतु] आग। निष्प्रभश्च रिपुरास भूभृतां धूमशेष इव धुमकेतनः। 11/81 वैसे ही क्षत्रियों के शत्रु परशुरामजी उस अग्नि के समान निस्तेज हो गए, जिसमें केवल धुआँ भर रह गया हो। 8. पावक :-[पू+वुल्] आग। पावकस्य महिमा स गण्यते कक्षज्ज्वलति सागरेऽपियः। 11/75 अग्नि का प्रताप तभी सराहनीय है, जब वह समुद्र में भी वैसे ही भड़ककर जले जैसे सूखी घास के ढेर में। तस्याः स्पृष्टे मनुजपतिना साहचर्याय हस्ते मांगल्योर्णा वलयिनि पुरः पावकस्योच्छिखस्य। 16/87 जब राजा कुश ने अग्नि के आगे उस कन्या का ऊनी कंगन बँधा हुआ हाथ पकड़ा। 9. मरुत्सखा :-[मृ+उति+सखः] अग्नि का विशेषण। मरुतप्रयुक्ताश्च मरुत्सखाभं तमय॑माराद्भिवर्तमानम्। 2/10 जिधर-जिधर राजा दिलीप जाते थे उधर-उधर की लताएँ, अग्नि के समान तेजस्वी और पूजनीय राजा दिलीप के ऊपर। तावदाशु विदधै मरुत्सखैः सा पुष्प जलवर्षिभिर्घनैः। 1/ इतने में वायु ने फूल और बादलों ने जल लाकर सड़कों पर बरसा ही तो दिया। 10. वह्नि :-[व+निः] अग्नि। अथ नयन समुत्थं ज्योतिरत्रेरिव द्यौः सुरसरिदिव तेजो वह्निनिष्ठयूतमैशम्। 2/75 जैसे अत्रि ऋषि के नेत्र से निकली हुई चन्द्रमारूपी ज्योति को आकाश ने धारण For Private And Personal Use Only
SR No.020426
Book TitleKalidas Paryay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTribhuvannath Shukl
PublisherPratibha Prakashan
Publication Year2008
Total Pages487
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size18 MB
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