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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ९ ) कण्ठ्या । इयाणि संकियत्ति दारं । निस्संकियगाहा निस्संकियं च काहिइ उभये जं संकियं च सुअहरेहिं ॥ ( दारं ) पत्तदार मियाणि अव्वोच्छित्तिकरं वा लव्भ पत्तं दुपक्खाओ । ( दारं ) भावणादारमियाणि जाइ-कुल- रूब-घण- बलसंपन्ना इइढिमंत निस्संका । जयणाजुत्ता य जई समेच्च तित्थं पभाविति । उक्तं च- प्रवचनी धर्मकथी वादी नैमित्तिकस्तपस्वी च । जिनवचनरतच कविः प्रवचनमुद्भावयन्त्येते || Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir जो जेण गुणेण रहिओ जेण विणा वा न सिज्झए जंतू । सो तेण धम्मकज्जे सव्वत्थामं न होवे || ( दारं ) इयाणि पवित्तिदारं साहम्मियागयाणं खेमसिवाणं च लब्भइ पवित्तिं गच्छति जहिं ताई होहिंति नवावि अच्छ वा ॥ ( दारं ) इयाणि कज्जदार उहाहदारे कुलमाईणं कज्जाइ साहिस्सं लिंगिणो य सासिस्सं । जं लोग विरुद्धाई करिति लोगुत्तराई च समाप्ता द्वारगाथा । अत्र संज्ञिद्वारणैव प्रयोजनं तदर्थव्याख्यानायाह -- तत्थ य पदमं ठवणं पढमं णसणं भांति समयविऊ । पुर्व पट्टियाए रहमि अणुयाण अहिगारा || १३|| २ For Private And Personal Use Only
SR No.020413
Book TitleJivanushasanam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevsuri
PublisherJagjivan Uttamchand Shah
Publication Year1928
Total Pages129
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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