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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३९ ] "देवों का स्वाभाविक शरीर-मान ।" ईसाणंत सुराणं, रयणीओ सत्त हुंति उच्चत्तं । दुग-दुग-दुग-चउ-गेवि, जणुत्तरे इक्किक्क परिहाणी ॥३३॥ (ईसाणंत) ईशानान्त-ईशान देवलोक तक के (सुराणं) देवताओं की (उच्चत्तं) ऊँचाई (सत्त) सात (रयणीओं) रस्नि-हाथ (हुति) होती है, (दुग-दुग दुग चउगेविजणुत्तरे) दो,दो, दो, चार, नवग्रैवेयक और पांच अनुत्तरविमानों के देवों का शरीर-मान (इकिक परिहाणी) एक एक हाथ कम है ॥३३॥ ____ भावार्थ-दूसरा देवलोक ईशान है, वहां के देवों का तथा भवनपति, व्यन्तर,ज्योतिषी और सौधर्म देवों का शरीर सात हाथ ऊँचा है;सनत्कुमार और माहेन्द्र के देवों का शरीर छः हाथ ऊँचा है; ब्रह्म और लान्तक के देवों का पांच हाथ, शुक्र और सहस्रार के देवों का चार हाथ; प्रानत, प्रामत, धारण और अच्युत इन चार देवलोकों के देवों का तोन हाथ; नववेयक के देवों का दो हाथ और पांचधनत्तर विमानवासी देवोंका एक हाथ ऊँचा है। ___ यहां जीवों का शरीर-मान उत्सेधांगुल से समझना चाहिये। For Private And Personal Use Only
SR No.020410
Book TitleJivvichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Vrajlal Pandit
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1850
Total Pages58
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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