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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ३० ] कुछ कुछ अंतरपर, क्रमसे एकपर एक, ऐसी स्थिति में हैं; वहांसे कुछ ऊंचाई पर नववां अानत और दसवां प्राणत. दक्षिण और उत्तर में, एक दूसरे से लगे हुए हैं। वहांसे कुछ ऊंचाई पर, ग्यारहवां प्राणर और बारहवां अच्युत, दक्षिण तथा उत्तर दिशाओं में एक दूसरे से जुड़े हुए हैं। प्रथम के पाठ देवलोकों के आठ इन्द्र हैं अर्थात् हर एक देवलोक का एक एक इन्द्र है; पर नववं और दसवें देवलोकका एक तथा ग्यारवें और बारहवें देवलोक का एक, इस प्रकार अन्तिम चार देवलोकों के दो इन्द्र है; प्रथम के पाठ मिलाने से कल्पोपपन्न वैमानि देवताओं के दस इन्द्र हुए । पुरुषाकार लोक के गले के स्थान में नववेयक हैं, वहाँ से कुछ ऊपर पाँच अनुत्तरविमान हैं । लोकरूप पुरुषके ललाट की जगह सिद्धशिला है, जो स्फटिक के समान निर्मल है, वहां से एक योजन पर लोक का अन्त होता है, लोक के अन्तिम भाग में सिद्ध जीवों का निवास है। अब तीन प्रकार के किल्विषिक देव तथा नव प्रकार के लोकान्तिकदेवों का निवासस्थान कहते हैं। प्रथम प्रकार के किल्बिषिकों की तीन पल्योपम आयु है ओर वे पहले तथा दूसरे देवलोक के नीचे रहते हैं। दूसरे प्रकार के किल्बिषिकों की श्रायु, तीन सागरोपम की है और वे तीसरे तथा चौथे देवलोक के नीचे रहते हैं। तीसरे प्रकार के किल्बिषिकों की आयु For Private And Personal Use Only
SR No.020410
Book TitleJivvichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShantisuri, Vrajlal Pandit
PublisherAtmanand Jain Pustak Pracharak Mandal
Publication Year1850
Total Pages58
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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