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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२३ निकली, यह छट्टागछ भेदभया, तथा इनोंहिके वखतमें, संवत् १५६२ कडुआमत हूवा, संवत् १५७० में लंकामतसें, अर्थात् श्रीरूपऋषिके परिवार से निकलके बीजा नामक वेषधरनें बीजामत निकाला, पहिला लुंका हूवा दूसरा यह हूवा, तब लोक इसमतको बीजामत कहने लगे, लंकेने श्रीजिनप्रतिमाका मानना पूजना उत्थापनकरा, इसबीजामतिनें श्री जिनप्रतिभाका पूजना मानना शुरु किया, प्रतिष्ठा वगेरे दिगंबर जैसी करणे लगा इतना विशेषहै, संवत् १५७२ नागोरी तपाशाखामेसें निकलके, पण्डितपार्श्वचन्द्रजीयतिनें अपने नाम से पार्श्वचन्द्र मत निकाला, इसका स्वरूप इसतरे है, तथाहि श्रीमान् साधुरत्नसूरिजी के अंतेवासी प्रथम पंडितावस्था में यतिपर्णे देशाटणकररहेथे, तिससमें मायावीलोंका पंडितपार्श्व चंदजीसें आकर मिला और बहुतहि भाव भक्तिसेवा इनोंकी करने लगा वादमें जो वृत्तान्तं हूवा सो लंपक मताधिकार में लिखा है, इसलिये यहांपर नहिं लिखा है, बाद में पंडितपार्श्वचन्द्रजीनें सोचा कि कसूरतो अपने हाथसें हूवा है, अब चलो गुरुजीकेपास अरज करें, यह विचारके श्री साधुरत्नसूरिजी के पास आकर अरजकरी कि, मेने यह दवार्थसूत्रोंपर करा है, कैसा है दिखलाया, तब सूरिवोले कि तेंने बनायासो टीकानुसार होनेसें ठीक है, परन्तु आगे पीछे के परिणामको विचारा नहिं, यहटवार्थ प्रथम वार ने लिखा है, अब इसको प्रसिद्ध नहिं करना, ऐसा कहकर वादमें कुछ मनमें विचार करके, उपाध्यायपददेके, अपर्णेपास रक्खे परन्तु दगा न सगा किसीका इसलिये कितनेक काल बाद लुंपकमतकी सुलसुलाट भई, तब तपास करतां पंडितपार्श्वचंद्रकृत् टबाके आधारसें For Private And Personal Use Only
SR No.020407
Book TitleJinduttasuri Charitram Uttararddha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinduttsuri Gyanbhandar
PublisherJinduttsuri Gyanbhandar
Publication Year1928
Total Pages240
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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